नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सनकादि कुमार-पूतना-मोक्ष
पूतना के नेत्र फटे-फटे हो गये हैं। केश बिखरे हैं। शरीर स्वेद से भीग गया है। वह हाथ-पैर पटकती रो रही है- चिल्ला रही है और भाग रही है- उछल-कूद रही है- यह कहना अधिक उपयुक्त है। पूतना राक्षसी है। वह आकाश में उड़ सकती है; किंतु यह तर्क तो कोई स्वस्थ बैठा महापण्डित ही करेगा। पूतना की शक्ति, बुद्धि, प्राण तो यह उसके वक्ष से चिपका शिशु पिये जा रहा है। इसने दोनों करों से उसका वक्ष पकड़ लिया है और पी रहा है- पीता जा रहा है। पूतना के रोने-चिल्लाने, उछलने का इसे जैसे कोई पता नहीं। यह पी रहा है- पूतना के दूध के साथ उसके प्राण पी रहा है। पूतना का अंग-अंग फटा जा रहा है। उसके मर्म-स्थल विदीर्ण हो रहे हैं। वह छटपटा रही है, चिल्ला रही है; किंतु अपने हाथ उठाकर वक्ष से चिपके इस शिशु को नोचकर फेंक देने में भी असमर्थ हो गयी है। उसके कर ऊपर उठते ही नहीं हैं और उसकी यह अनवरत चीत्कार- पक्षी चिल्लाते उड़ने लगे हैं। पशु दिशाओं में दूर भागते जा रहे हैं। गोकुल में सबको लगता है कि भयंकर शब्द से कर्ण कुहर फट जायेंगे। फट जायगा हृदय और मस्तक। सब-के-सब दोनों करों से कर्ण बन्द करके, नेत्र मूँदकर बैठ गये हैं जहाँ के तहाँ। पूतना छटपटाती भागी है- भागती गयी है और गोकुल से दूर- पर्याप्त दूर अपने महाराज कंस के उपवन में गिर पड़ी है। वह कंस का फलोद्यान- इस राक्षसी की विशाल काया के नीचे वह पूरे छ: कोस का उद्यान पिस गया है। उसके वृक्षों, शाखाओं, तनों का अब कहीं पता नहीं। उनको खण्ड-विखण्ड करके तो उन-पर हाथ-पैर फैलाकर यह पूतना का महाशरीर प्राणहीन पड़ा है। पूतना का यह मृत देह भी दर्शन करने योग्य है। इसकी केश-राशि किञ्चित अरुण दीर्घकाय सर्पों के समूह के समान फैल गयी है। चारों ओर और इसके फटे-फटे नेत्र मानों अन्ध-कूप हों। इसके खुले, फैले विकराल मुख में बडे़-बड़े भयंकर उज्ज्वल दाँत- काल की कराल दाढ़ें इनसे कम भयंकर होती हैं। ये पूरे बाण जितने लम्बे दाँत। इसके दिशाओं में दूर तक फैले कर-चरण जैसे ऊँचे बाँध चले गये हों और इसका उदर भारी जलहीन ह्रद लगता है। |
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