नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
'शिशु निरपराध है। मुझे उस पर कोई रोष नहीं। भगवान नारायण उसे स्वस्थ, सुप्रसन्न, दीर्घायु प्रदान करें!' मैंने आशीर्वाद देकर आश्वासन दिया- 'तुमको दु:खी नहीं होना चाहिये। मैं तो तपस्वी हूँ। व्रत-उपवास मेरे लिए स्वाभाविक है। लेकिन तुम्हारे यहाँ आकर उपवास करके नहीं जाऊँगा। अतिथि उपोषित चला जाय, यह दोष तुम्हें नहीं दूँगा। मेरे आराध्य आज दूध-दधि ही आरोगना चाहते हैं तो उनकी इच्छा पूर्ण हो। तुम दधि में मिलाने योग्य कुछ भी ला दो! मैं अपने इष्टदेव को नैवेद्य अर्पण कर दूँ।' 'यह अत्यन्त चपल और धृष्ट हो गया है!' यशोदा ने मेरे इतना कहने पर बोलने का साहस पाया था- 'आपको हमारे यहाँ बहुत कष्ट हुआ! अब कैसे कहूँ कि आप एक बार रन्धन का श्रम और स्वीकार करें; किंतु यदि श्रीचरण इसे स्वीकार कर लेते, हम कृतकृत्य हो जाते!' अब नन्दराय ने मस्तक उठा लिया था। उनके अश्रु-वर्षा करते नेत्रों में भी यही अनुरोध था। मैं यदि केवल दूध या दधि लेकर यहाँ से चला जाऊँगा तो इस दम्पत्ति को यह क्लेश, सम्भव है जीवन भर अशान्त रखे, यह बात मेरे ध्यान में आ गयी। 'यशोदा! भूल मेरी है।' मैंने हँसकर कहा- 'मैंने अपने आराध्य को इधर वर्षों से पायस अर्पित नहीं किया है। उनकी इच्छा आज पायस का नैवेद्य स्वीकार करने की होगी, अत: यह सब लीला उन्होंने की है। तुम शीघ्र व्यवस्था कर दो! मैं केवल पायस बनाऊँगा। उसे शीतल करने को एक व्यजन भी यहाँ रख दो।' नन्दराय और यशोदा तो पुलकित हो गये। स्थान स्वच्छ होने में और पायस-रन्धन की प्रस्तुति में कुछ पल लगे। व्यजन रखकर दोनों गोष्ठ से चले गये। इस बार देवी रोहिणी को नन्दनन्दन को अपने समीप रखने को कहकर दोनों गोष्ठ के एक-एक द्वार पर खड़े हो गये द्वार रोककर। दोनों की सावधानी स्वाभाविक थी। शिशु को यदि यह मेरा भोजन, भोग लगाना क्रीड़ा लगा हो तो त वह पुन: आ सकता था। वह पुन: आया। इस बार उस अज्ञान-ध्वान्त-विध्वन्सी ने मुझ अज्ञ के नेत्रों पर पड़े आवरण को उठा देने का ही निश्चय कर लिया था। मुझ पर पूर्ण अनुग्रह करने का निर्णय उसने किया था आज। |
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