नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
श्रद्धालुजनों का स्वभाव है कि शंख-ध्वनि होने पर उनके नेत्र बन्द हो जाते हैं। अञ्जलि बँध जाती है और मस्तक झुक जाता है श्रीहरि के प्रति। यही हुआ होगा देवी रोहिणी तथा नन्दराय के साथ और इतना अल्प अवसर तो उनके लीलामय परम चपल लाल के लिए बहुत पर्याप्त था। इसी अवसर में वह भाग आया होगा उनके समीप से मुझे धन्य करने। मैंने नेत्र खोले तो वे परम सुन्दर मेरे पात्र के समीप बैठे थे। अधर, दक्षिण कर पायस से सुशोभित हो गये थे और पैरों पर भी कुछ बिन्दु पड़े थे। इस बार मेरी ओर दृष्टि उठाये बिना लगे रहे भोग लगाने में। मैंने तनिक खीझकर ही पुकारा- 'यशोदा? नन्दराय?' यशोदा ने द्वार पर से ही डाँटा- 'तू फिर क्यों आ गया? पीछे ही पड़ गया है इन विप्रवर के?' इस बार उठने, भागने का कोई प्रयत्न मेरे प्रभु ने नहीं किया। केवल मुख घुमाकर देखा पीछे और बोले- 'मैया! तू इसे मार। यह शंख बजाकर, आँखे बन्द करके गिड़गिड़ाकर मझे पुकारता है बार-बार! यह बुलाता है इतने प्रेम से कि मुझे आना पड़ता है।' 'मैं बुलाता हूँ? मैं आह्वान करता हूँ इनका?' मैंने चौंककर देखा और मेर नेत्रों पर पड़ी अविद्या की यवनिका खिसक गयी। 'भगवती सिन्धु-सुता श्रीवत्स बनकर किसी अन्य के वक्ष पर विराजती हैं? कौस्तुभ किसी और का भी कण्ठाभरण हुआ है?' लगा कि अन्तर में बैठा अन्तर्यामी मेरी भर्त्सना करने लगा है। यह सहस्त्र-सहस्त्र चन्द्र-ज्योत्सना-समुज्वल नीलकान्त वपु और सम्मुख होते भी मैं इन्हें पहचान नहीं पा रहा हूँ? आनन्द, अनुताप का ऐसा अदभुत मिश्रण- मेरी काया का कण-कण नाचने लगा। श्रीनन्दराय ने मुझे बतलाया कि मैं किसी आवेश में नृत्य करने लगा था उनके पुत्र का उच्छिष्ट पायस खाते और शरीर पर मलते हुए। बहुत देर में मैं कुछ शान्त हुआ तो उन्होंने मुझे स्नान कराया। किसी प्रकार उनका सन्तोष करके मैं विदा हुआ; किंतु उनके तनय तो हृदय में आसीन हो गये हैं- मुझे उन दयासिन्धु ने अपना लिया! |
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