नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
रसोई शीघ्र बन गयी। यशोदा ने मेरी यह भी नहीं सुनी थी कि मैं कुछ संक्षिप्त भोजन बना लूँ। मुझे सभी पदार्थ पहिले के समान बनाने पड़े थे। मेरे आराध्य भगवान शालिग्राम को नैवेद्य अर्पण करना था, अत: मुझे दूसरी बार का उद्योग, श्रम नहीं प्रतीत हुआ। मुझे लगा कि श्रीनारायण ने आज सेवा का अधिक सुअवसर दिया है। यह रन्धन तो मेरी आराधना का ही अंग था। मैंने पात्र में नैवेद्य सजाया। भगवान शालिग्राम के सम्मुख पात्र सादर रखकर जलार्पण किया आचमन कराने के लिए। शंख-ध्वनि की और नेत्र बन्द करके प्रार्थना करने लगा-'सर्वेश! शिशु तो आपका ही स्वरूप हैं, अत: क्षमा करें! आपको बिलम्ब हो गया! अब इस जन को कृतार्थ करें यह नैवेद्य स्वीकार करके!' कुछ क्षण प्रार्थना करके मध्याचमन अर्पित करने के लिए मुझे नेत्र खोलने ही थे। देखता हूँ कि नन्दनन्दन पहिले की भाँति ही जमे बैठे हैं और भोजन कर रहे हैं। इस बार मेरी ओर देखकर हँस पड़े। यह उन शोभासिन्धु की हास्य छटा। हायरी कर्मठता की निष्ठुरता! मेरे मुख से फिर निकल गया- 'तू फिर आ गया?' मैं कितना अन्धा था। उन्होंने तो सुप्रसन्न सिर हिलाकर सूचित किया- 'हाँ! मैं फिर आ गया। तुम इतना स्वादिष्ट नैवेद्य बना लेते हो!' मेरा स्वर सुनकर नन्दराय और यशोदा दोनों लगभग दौड़ते द्वार में-से आये। यशोदा ने लगभग चीखकर कहा- 'तू यहाँ फिर पहुँच गया?' वे दयाधाम! वे लीलामय फिर हँसते भागे। फिर जूठे मुख, जूठे कर ही भाग गये। वह उनकी अलकों का पीठ पर लहराना, वे उनके अरुण, कोमल सुन्दर चरण और किंकिणी का स्वर- मैं मुग्ध देखता रहा उनकी ओर। देखता रहता; किंतु यशोदा उन्हें पकड़ने दौड़ पड़ी तो मैंने रोका- 'यशोदा! बालक पर रुष्ट नहीं होते। वह तो सहज अबोध है।' उन सौन्दर्य-घन परम सुकुमार को ये व्रजेश्वरी डाँटेगी। पीट भी सकती हैं, यह बात ध्यान में आते ही मेरा हृदय व्याकुल हो गया। मैं ब्राह्मण ठहरा किसी को भी कष्ट हो, यह कल्पना मुझे बहुत असह्य है और यह सुषमा की मूर्ति व्रजराज कुमार- इसका श्रीमुख उदास हो, यह तो कोई नितान्त निर्दय भी नहीं सह सकेगा। |
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