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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
88. गीता में आये पुनरुक्त समानार्थक वाक्यों का तात्पर्य
6. ‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’[1] और ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’[2]- यद्यपि ‘यं प्राप्य’ और ‘यद्गत्वा’- इन दोनों पदों का अर्थ एक ही है; क्योंकि ‘प्राप्य’ (आप्लृ व्याप्तौ) का अर्थ भी प्राप्त होना होता है और ‘गत्वा’ (गम्लृ गतौ) का अर्थ भी प्राप्त होना होता है, तथापि पहले वाक्य में सगुण-निराकार परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है, जिसका संपूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नाश नहीं होता। उसकी सब जगह व्यापकता दीखती है, अपरोक्षता दीखती है। अतः उसको प्राप्त होने की बात कही गयी है। परंतु दूसरे वाक्य में वैकुण्ठ लोक, गोलोक, साकेतलोक आदि धाम की मुख्यता को लेकर वर्णन है, जिसको सूर्य आदि भी प्रकाशित नहीं कर सकते। वह धाम दूर, परोक्ष दीखता है। अतः वहाँ जाने की बात कही गयी है। वास्तव में परमात्मा का स्वरूप और परमात्मा का धाम- दोनों तत्त्व से एक ही हैं। 7. ‘उदासीनवदासीनम्’[3] और ‘उदासीनवदासीनः’[4]- भगवान् प्राणियों के स्वभाव के अनुसार सृष्टि की रचना करते हैं; परंतु वे उस सृष्टिरचना रूप कर्म से लिप्त नहीं होते, प्रत्युत उदासीन की तरह रहते हैं।[5] ऐसे ही गुणातीत महापुरुष भी उदासीन की तरह रहता है; क्योंकि वह गुणों की वृत्तियों आदि में कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होता।[6] 8. ‘अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च’[7] और ‘सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन’[8]- दसवें अध्याय में भगवान् चिन्तन के लिए अपनी विभूतियों का वर्णन कर रहे हैं। अतः पहले वाक्य का तात्पर्य है कि अगर साधक की दृष्टि प्राणियों की तरफ चली जाय तो वहाँ यही चिंतन करें कि संपूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य और अंत में भगवान् ही हैं। दूसरे वाक्य का तात्पर्य है कि अगर साधक की दृष्टि सर्गों (सृष्टियों) की तरफ चली जाय तो वहाँ भी यहीं चिंतन करे कि अनन्त सृष्टियों के आदि, मध्य और अंत में भगवान् ही रहते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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