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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
3. गीता में ईश्वरवाद
ज्ञातव्य
उत्तर- ईश्वर है, इसलिए मानें।
उत्तर- संसार में जो भी वस्तु दीखती है, उसका कोई न कोई निर्माणकर्ता होता है; क्योंकि निर्माणकर्ता के बिना कोई भी वस्तु निर्मित नहीं होती। ऐसे ही समुद्र, पृथ्वी, चंद्र, सूर्य, वायु, तारे आदि हमें दीखते तो इनका भी कोई रचयिता जरूर होना चाहिए। इनका रचयिता हमलोगों की तरह कोई सामान्य मनुष्य नहीं हो सकता, जो इनको बना सके। इनका निर्माता, रचयिता सर्वसमर्थ ईश्वर ही हो सकता है। दूसरी बात, समुद्र अपनी मर्यादा में रहता है, चंद्र-सूर्य नियमित समय पर उदित और अस्त होते हैं आदि-आदि, तो इनका नियमन, संचालन करने वाला कोई होना चाहिए। इनका नियामक सर्वसमर्थ ईश्वर ही हो सकता है।
उत्तर- हम आपसे पूछते हैं कि प्रकृति जड़क है या चेतन अर्थात् उसमें ज्ञान है या नहीं? अगर आप प्रकृति को ज्ञान वाली मानते हैं तो हम उसी को ईश्वर कहते हैं। हमारे शास्त्रों में ईश्वर रूप से शक्ति का भी वर्णन है। अतः आपकी और हमारी मान्यता में शब्दमात्र का ही भेद हुआ, तत्त्व में कोई भेद नहीं हुआ। अगर आप मानते हैं कि प्रकृति जड़ है तो जड़ प्रकृति के द्वारा ज्ञानपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती। प्राणियों की रचना करना, उनके शुभाशुभ कर्मों का फल देना आदि क्रियाएँ जड़ प्रकृति के द्वारा नहीं हो सकतीं; क्योंकि ज्ञानपूर्वक क्रिया के बिना संसार के जीवों की व्यवस्था नहीं हो सकती। जड़ प्रकृति में परिवर्तन जरूर होता है, पर उसमें ज्ञानपूर्वक क्रिया करने की शक्ति नहीं है। इसलिए ‘ईश्वर है’- ऐसा हमें मानना ही पड़ेगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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