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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
84. गीतोक्त अन्वय व्यतिरेक वाक्यों का तात्पर्य
20. नवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि जो मेरे को तत्त्व से नहीं जानते, उनका पतन हो जाता है; और इकतीसवें श्लोक में कहा कि मेरे भक्त का पतन नहीं होता। -इसका तात्पर्य है कि सकामभाव से ऊँचा से ऊँचा शुभ कर्म करने वाला भी अगर भगवान् से विमुख है तो उसका पतन हो जाता है; और पापी-से-पापी भी अगर भगवान् के सम्मुख (शरण) हो जाता है तो उसका पतन नहीं होता। 21. ग्याहरवें अध्याय के तिरपनवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि वेदाध्ययन, दान और तप के द्वारा मैं देखा नहीं जा सकता, और चौवनवें श्लोक में कहा कि अनन्य भक्ति के द्वारा मैं देखा जा सकता हूँ। इसका तात्पर्य है कि वेदाध्ययन, दान आदि शुभ कर्मों में क्रिया की प्रधानता है और अनन्य भक्ति में भाव की प्रधानता है। क्रियाएं सीमित होती हैं और भाव असीम होता है। क्रियाओं का तो आरंभ और अंत होता है, पर भाव का आरंभ और अंत नहीं होता। भाव अनन्त होता है। जीव भी नित्य है और भगवान् भी नित्य है; अतः नित्य के प्रति जो भाव होता है, वह भी नित्य ही होता है। इसलिए मनुष्य क्रियाओं से भगवान् को देख नहीं सकता, प्रत्युत भाव (अनन्यभक्ति) से ही भगवान् को देख सकता है, प्राप्त कर सकता है। अगर यज्ञ, दान आदि में भी भाव की प्रधानता हो जाय तो वे क्रियाएं भी भक्ति में परिणत हो जाती हैं। भगवान् भावग्राही हैं, क्रियाग्राही नहीं- ‘भावग्राही जनार्दनः’ अतः भाव से ही भगवान् दर्शन देते हैं, क्रिया से नहीं। 22. अठारहवें अध्याय के अट्ठावनवें श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान् ने कहा कि अगर (मेरी आज्ञा के अनुसार) अर्जुन तू मेरे में अपना चित्त लगा देगा तो मेरी कृपा से तू संपूर्ण विघ्नों को तर जाएगा और उत्तरार्ध में कहा कि अगर तू अहंकार के आश्रित होकर मेरी बात (आज्ञा) नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जाएगा। -इसका तात्पर्य है कि भगवान् के सम्मुख होने से उद्धार होता है और विमुख होने से पतन होता है। अतः साधक को चाहिए कि वह भगवान् के ही आश्रित रहे, अहंकार का आश्रय कभी न ले। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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