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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
82. गीता में भगवान् की विषय प्रतिपादन शैली
(क)2. चौदहवें अध्याय के उन्नीसवें बीसवें श्लोकों में भगवान् ने ज्ञानयोग के साधन का वर्णन करते हुए कहा है कि वह तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता। संपूर्ण क्रियाएं गुणों में ही हो रही हैं, मेरा उनसे कोई संबंध नहीं है- इस तरह अपने को गुणों से सर्वथा निर्लिप्त जानकर वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। वह शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप तीनों गुणों का उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुखों से मुक्त होकर अमरता का अनुभव कर लेता है। चौदहवें अध्याय के ही बाईसवें-तेईसवें श्लोकों में तीनों गुणों को लेकर ही सिद्ध महापुरुष के लक्षणों का वर्णन करते हैं कि तीनों गुणों की प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह-रूप वृत्तियों के आ जाने पर वह उनसे द्वेष नहीं करता और उन वृत्तियों के चले जाने पर उनके फिर आने की इच्छा नहीं करता। वह गुणों तथा उनकी वृत्तियों से उदासीन की तरह स्थित रहता है। वह गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण में ही गुणों में बरत रहे हैं- ऐसा अनुभव करते हुए अपने स्वरूप में स्थित रहता है। 3. साधक के लिए भगवान् ने कहा है कि जो मेरे को सब जगह देखता है और सबको मेरे में देखता है, उस भक्त के लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।[1] सिद्ध भक्त के लिए भगवान् कहते हैं कि उसकी दृष्टि में सब कुछ वासुदेव ही है- ‘वासुदेवः सर्वम्’,[2] भगवान् के सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं।[3] 4. भगवान् ने साधक भक्त के लक्षणों में कहा है कि वह ‘संगवर्जितः’ अर्थात् आसक्ति से रहित और ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु’ अर्थात् संपूर्ण प्राणियों में वैरभाव से रहित हो जाता है।[4] यही लक्षण भगवान् ने सिद्ध भक्त के भी बताये हैं- ‘संगविवर्जितः’[5] और ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’[6] अपने में आसक्ति और वैरभाव न आ जाय- इस विषय में साधक तो सावधान रहता है, पर सिद्ध भक्त में ये दोष स्वाभाविक ही नहीं रहते। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (6।30)
- ↑ (7।19)
- ↑ मनुष्य ऊँची अवस्था वाले साधक और सिद्ध के लक्षणों में अंतर नहीं जान सकता; क्योंकि दोनों के लक्षण मिलते-जुलते ही होते हैं। दोनों में अंतर इतना ही रहता है कि साधक में सबको भगवत्स्वरूप देखने का भाव रहता है और सिद्ध में ‘सब कुछ भगवत्स्वरूप है’- यह भाव स्वतः रहता है।
- ↑ (11।55)
- ↑ (12।18)
- ↑ (12।13)
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