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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
77. गीता का तात्पर्य
2. अनन्यभाव (प्रेमभाव)- संसार अन्य है। उस संसार के आश्रय का, महत्त्व का त्याग करना, उससे विमुख हो जाना अनन्यभाव है। गीता में ‘अनन्यचेताः सततम्’[1]; ‘भक्त्या लभ्यस्त्त्वनन्या’,[2] ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’[3] ‘अनन्येनैव योगेन’[4] आदि पदों में अनन्यभाव का वर्णन हुआ है। विवेक और भाव- इन दोनों की मुख्यता का हरेक साधन में होनी जरूरी है। कारण कि इन दोनों के बिना मनुष्य संसार में फँस जाएगा, जन्म मरण में चला जाएगा। तात्पर्य है कि ‘विवेक’ को महत्त्व न देने से मनुष्य में जड़ता (मूढ़ता) आ जायगी और वह अकर्तव्य में लग जायगा, तथा ‘भाव’ (निष्कामभाव और अनन्यभाव) न होने से मनुष्य की संसार में आसक्ति- कामना हो जायगी और वह भगवान् से विमुख हो जायगा। विवेक में निष्कामभाव का होना भी जरूरी है;[5] क्योंकि अगर निष्काम भाव नहीं होगा तो मनुष्य कामनाओं में फँस जाएगा, जिससे संसार का त्याग नहीं होगा। ऐसे ही विवेक में अनन्यभाव अर्थात् प्रेमभाव का होना भी जरूरी है, चाह वह प्रेमभाव स्वरूप में हो[6]; चाहे कर्तव्य कर्म में हो।[7] निष्कामभाव में भी विवेक का होना बहुत आवश्यक है[8] क्योंकि अगर विवेक नहीं होगा तो मनुष्य निष्काम कैसे होगा? ऐसे ही अनन्यभाव में भी विवेक का होना जरूरी है[9]; क्योंकि विवेक के बिना अन्य का त्याग कैसे होगा? इस प्रकार गीता ने मनुष्य के कल्याण के लिए विवेक और भावपरक साधनों का वर्णन किया है। जहाँ क्रियापरक साधनों का वर्णन किया है वहाँ भी क्रियापरक साधनों पर इतना जोर नहीं दिया है, जितना जोर विवेक और भाव-परक साधनों पर दिया है। जहाँ क्रियापरक साधनों पर जोर दिया है, वहाँ भी वास्तव में निष्कामभाव की ही प्रधानता है।[10] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (8।14)
- ↑ (8।22)
- ↑ (9।22)
- ↑ (12।6)
- ↑ (5।23, 26)
- ↑ (5।24)
- ↑ (18।45)
- ↑ (4।19, 41; 6।8 आदि)
- ↑ (5।29; 9।13; 10।7 आदि)
- ↑ (2।47; 3।8, 17-18; 4।15 आदि)
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