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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
76. गीता में भगवान और महापुरुष का साधर्म्य
4. भगवान् कहते हैं कि मुझे सब कुछ करते हुए भी अकर्ता ही जानो अर्थात् मैं कर्तृत्वाभिमन से रहित हूँ- ‘तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्’[1] इसी प्रकार महापुरुष के लिए भी कहा है कि वह कर्मों को भलीभाँति करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता अर्थात् वह कर्तृत्वाभिमान से रहित है- ‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः’[2] 5. भगवान् कहते हैं कि संपूर्ण कर्म करते हुए भी मेरे को कर्म लिप्त नहीं करते ‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति’[3] और इनके फलों में मेरी स्पृहा (इच्छा) नहीं है- ‘न मे कर्मफले स्पृहा’[4] इसी प्रकार महापुरुष को भी कर्म लिप्त नहीं करते- ‘न निबध्यते’[5] और कर्मफल में भी उनकी स्पृहा नहीं होती- ‘विगतस्पृहः’[6]; ‘पुमांश्चरति निःस्पृहः’[7] 6. भगवान् स्वभाव से ही प्राणिमात्र के सुहृद् हैं- ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’[8] इसी तरह महापुरुष भी स्वभाव से संपूर्ण प्राणियों के हित में प्रीति रखते हैं- ‘सर्वभूतहिते रताः’[9] 7. भगवान् ने अपने आपको तीनों गुणों से अतीत कहा है- ‘मामेभ्यः परमव्ययम्’[10] इसी प्रकार महापुरुष को भी तीनों गुणों से अतीत कहा गया है- ‘गुणातीतः स उच्यते’[11] 8 भगवान् कर्मों में आसक्तिरहित तथा उदासीन के सदृश स्थित हैं और उन्हें कर्म नहीं बाँधते- ‘उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु’[12] इसी तरह महापुरुष का भी कर्मों में राग नहीं होता; अतः उनको भी कर्म नहीं बाँधते- ‘उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते’[13] 9. भगवान् की दृष्टि में तो सत् और असत् सब कुछ मैं ही हूँ- ‘सदसच्चाहम्’[14] और महापुरुष की दृष्टि में सब कुछ वासुदेव ही है- ‘वासुदेवः सर्वम्’[15] 10. भगवान् कहते हैं कि वेदों को जानने वाला मैं ही हूँ- ‘वेदविदेव चाहम्’[16] इसी तरह महापुरुष को भी वेदों को जानने वाला कहा गया है- ‘स वेदवित्’[17] इस प्रकार भगवान् से साधर्म्य होने पर भी महापुरुष भगवान् की तरह ऐश्वर्य संपन्न नहीं होता। पूर्ण ऐश्वर्य तो केवल भगवान् में ही है- ‘ऐश्वर्यस्य समग्रस्य’[18] जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहारक कार्य भी केवल भगवान् के द्वारा होता है, महापुरुष के द्वारा नहीं- ‘जगद्व्यापारवर्जम्’[19] भगवान् और महापुरुष के लक्षणों मे साधर्म्य बताने का तात्पर्य है कि अनादिकाल से स्वर्ग, नरक और चौरासी लाख योनियों में भटकने वाला साधारण प्राणी भी यदि मनुष्यजन्म का सदुपयोग करे तो परमात्मा के जो लक्षण हैं, वे ही लक्षण जीवन्मुक्त होन पर उसमें आ जाते हैं। जो उन्नति ब्रह्मलोक तक जाने पर भी नहीं होती, वही उन्नति जीव मनुष्यशरीर के रहते हुए कर सकता है! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (4।13)
- ↑ (4।20)
- ↑ (4।14)
- ↑ (4।14)
- ↑ (18।17)
- ↑ (2।56)
- ↑ (2।71)
- ↑ (5।29)
- ↑ (5।25, 12।4)
- ↑ (7।13)
- ↑ (14।25)
- ↑ (9।9)
- ↑ (14।23)
- ↑ (9।19)
- ↑ (7।19)
- ↑ (15।15)
- ↑ (15।1)
- ↑ (विष्णुपुराण 6।5।74)
- ↑ (ब्रह्मसूत्र 4।4।17)
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