विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
71. गीता में साधकों की दो दृष्टियाँ
दसवें अध्याय में भगवान् ने अर्जुन से कहा कि तेरे को जहाँ-कहीं, जिस किसी में महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता आदि दीखे उसको मेरी ही समझ[1] तात्पर्य है कि वहाँ महत्ता आदि के रूप में मैं ही हूँ -ऐसा मानकर तेरी दृष्टि केवल मेरी तरफ ही जाना चाहिए। ज्ञानयोग में साधक ऐसा मानता है कि प्रकृतिजन्य गुणों के द्वारा ही सब क्रियाएं हो रही हैं[2]; गुण ही गुणों में बरत रहे हैं[3] इस दृष्टि से भगवान् ने अठारहवें अध्याय में सत्त्व, रज और तम- इन तीन गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के तीन-तीन भेद बताये और अंत में तीनों गुणों के प्रकार का उपसंहार करते हुए कहा कि त्रिलोकी में तीनों गुणों के सिवाय कुछ नहीं हैं; जो कुछ दीख रहा है, वह सब त्रिगुणात्मक है।[4] गीता में भगवान् ने एक स्थान पर यह कहा है कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं[5] और दूसरे स्थान पर कहा है कि सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं[6] इनमें पहली बात तो भक्तिमार्ग की है और दूसरी बात ज्ञानमार्ग की है। भक्तिमार्ग में भगवान् के सिवाय गुणों की, भावों की स्वतंत्र सत्ता नहीं होती अर्थात् गुण, पदार्थ क्रिया आदि सब भगवत्स्वरूप ही होते हैं। इसलिए भगवान् ने गुणों को अपने से उत्पन्न बताया है। ज्ञानमार्ग से निर्गुण ब्रह्म की उपासना होती है। निर्गुण ब्रह्म गुणों से अतीत है, निर्लेप है, निष्क्रिय है, निराकार है; अतः उसमें प्रकृति और प्रकृतिजन्य गुणों की किञ्चिन्मात्र भी संभावना नहीं है। इसलिए भगवान् ने गुणों को प्रकृति से उत्पन्न बताया है। तात्पर्य यह हुआ कि गुणों को चाहे भगवान् से उत्पन्न हुआ मानें अथवा प्रकृति से उत्पन्न हुआ मानें, उनका हमारे साथ संबंध नहीं है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज