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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
55. गीता में निर्द्वन्द्व होने की महत्ता
अनुकूल परिस्थिति में राजी और प्रतिकूल परिस्थिति में नाराज होना भी द्वंद्व है। इस द्वंद्व से व्यवहार बिगड़ता है, दुख होता है और बंधन दृढ़ होता है। परंतु जो अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में राजी-नाराज नहीं होता, इनमें सम रहता है, इसका व्यवहार ठीक तरह से होता है, उसको दुख नहीं होता और उसका कर्मबंधन कट जाता है।[1] जैसे, जो माँ अपने बच्चों में द्वंद्व रखती है, पक्षपात या विषमता रखती है, वह माँ होते हुए भी बच्चों को प्रसन्न नहीं रख सकती, जिससे कुटुम्ब में कलह होता है, अशांति रहती है, मनमुटाव रहता है। द्वंद्व, पक्षपात न रहने से कलह मिट जाता है और कुटुम्ब में शांति रहती है। द्वंद्व, विषमता, पक्षपात- ये जन्म मरण के, दुखों के मूल हैं। इनके सर्वथा मिटने पर परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। अतः भगवान् ने द्वंद्वों में सम रहने को ‘योग’ कहा है।[2] हम युद्ध करें या न करें, जीत हमारी होगी या उनकी[3] यह भी द्वंद्व है परंतु यह राग द्वेषवाला द्वंद्व नहीं है, प्रत्युत भविष्य की चिंतावाला द्वंद्व है। इस द्वंद्व से मोहित हुए अर्जुन भगवान् के शरण होकर उनसे अपना कर्तव्य पूछते हैं।[4] उत्तर में भगवान् कहते हैं- अगर तू युद्ध में मारा जाएगा तो स्वर्ग को प्राप्त होगा और युद्ध में जीत जाएगा तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा।[5] अतः जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख में सम होकर युद्ध कर, फिर तुझे पाप नहीं लगेगा।[6] कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, कर्म के फल में नहीं।[7] तू सिद्धि असिद्धि में सम होकर कर्म कर[8] क्योंकि समबुद्धि से युक्त मनुष्य इस जीवित अवस्था में ही पाप-पुण्य से रहित हो जाता है।[9] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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