विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
54. गीता में त्याग का स्वरूप
अद्वैत सिद्धांत में तो साधक ब्रह्मरूप हो जाता है, पर भक्त ब्रह्मरूप से भी विलक्षण हो जाता है जिसमें भगवान् भी भक्त के भक्त बन जाते हैं जबकि भक्त नहीं चाहता कि भगवान् मेरे भक्त बनें। ऐसे भक्तों के बिना भगवान् का मन नहीं लगता। भगवान् को भी ऐसे भक्तों की गरज होती है, चाहना होती है। जैसे, हनुमान जी भगवान् से कुछ भी नहीं चाहते न रहने के लिए स्थान चाहते हैं, न भोजन चाहते हैं, न कपड़ा चाहते हैं, न सहायता चाहते हैं, न मान चाहते हैं, पर भगवान् का काम करने के लिए वे सदा आतुर रहते हैं- ‘राम काज करिबे को आतुर’ अतः भगवान् रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी, भरतजी, अयोध्यावासी आदि सब के सब हनुमानजी के ऋणी हो जाते हैं! हनुमानजी त्याग के कारण इतने ऊँचे हो गये कि जहाँ रामजी का मंदिर होता है, वहाँ हनुमान्जी का मंदिर होता ही है, पर जहाँ रामजी का मंदिर नहीं होता, वहाँ भी स्वतंत्र रूप से हनुमानजी का मंदिर होता है अर्थात् हनुमानजी के बिना रामजी के मंदिर नहीं हैं, पर रामजी के बिना हनुमानजी के मंदिर हैं! त्यागी भक्तों को भगवान् अपने माता-पिता, भाई-बंधु, कुटुम्बी बना लेते हैं और उनके अधीन हो जाते हैं। भक्त से प्रेम पाने के लिए भगवान् भी लालायित रहते हैं। ब्रज की गोपियों में ऐसा ही प्रेम था। वे अपने लिए कुछ नहीं चाहती थीं, केवल भगवान् को ही सुख देना चाहती थीं। उनका अपना कोई अलग व्यक्तित्व नहीं था। उन्होंने भगवान् में ही अपने व्यक्तित्व की आहुति दे दी थी। ब्रह्म तो एकरस है। वह न किसी को रस देता है और न रस लेता है। परंतु भक्त को भगवान् को भी रस देता है और देता ही रहता है उसका देना समाप्त होता ही नहीं। जैसे समुद्र में मिलने पर भी गंगा जी का प्रवाह समुद्र में बहता ही रहता है, भले ही उस प्रवाह का भान न हो, से ही भक्त का देने का प्रवाह चलता ही रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज