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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
53. गीतोक्त प्रवृत्ति और आरम्भ
प्रवृत्ति (अपने कर्तव्य का पालन) तो गुणातीत मनुष्य के द्वारा भी होती है,[1] पर उसके द्वारा भोग और संग्रह के उद्देश्य से कर्मों का आरंभ नहीं होता। कहीं-कहीं गुणातीत मनुष्य के द्वारा भी नये-नये कर्मों का आरंभ देखने में आता है; परंतु उन कर्मों के आरंभ में उसके किञ्चिन्मात्र भी राग द्वेष नहीं होते। भोग और संग्रह के उद्देश्य से नये-नये कर्मों का आरंभ करने वाले मनुष्य ‘हमें तो परमात्मप्राप्ति ही करनी है’- ऐसा एक निश्चय कर ही नहीं सकते।[2] तात्पर्य है कि अपने वर्ण-आश्रम के अनुसार निष्कामभावपूर्वक की गयी प्रवृत्ति बाधक नहीं है, प्रत्युत मुक्ति में हेतु है। ऐसे ही अपने स्वार्थ, अभिमान, कामना, आसक्ति का त्याग करके प्राणिमात्र के हित के लिए किए गये नये-नये कर्मों का आरंभ भी बाधक नहीं है। परंतु इन आरंभों में साधक को यह विशेष सावधानी रखनी चाहिए कि कर्मों का आरंभ करते हुए कहीं हृदय में पदार्थों और क्रियाओं का महत्त्व अंकित न हो जाए। अगर हृदय में पदार्थों और क्रियाओं का महत्त्व अंकित हो जाएगा तो उन कर्मों में साधक की निर्लिप्तता नहीं रहेगी अर्थात् वह साधक अपने पास रुपये पैसे भी न रखता हो, पदार्थों का संग्रह भी न करता हो, तो भी उसके हृदय में धन, पदार्थ और क्रियाओं का महत्त्व अंकित हो ही जाएगा तथा कार्य करते हुए और न करते हुए भी उन कार्यों का चिंतन हो ही जाएगा। भगवान् ने कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगी- तीनों ही साधकों के लिए प्रवृत्ति (कर्म) से निर्लिप्त रहने की बात कही है। कर्मयोगी साधक में फलासक्ति न होने से वह कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता- ‘कुर्वन्नपि न लिप्यते’[3] ज्ञानयोगी साधक ‘संपूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा ही हो रहे हैं’- ऐसा देखता है और स्वयं को अकर्ता अनुभव करता है।[4] इसलिए वह कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता। भक्तियोगी साधक संपूर्ण कर्मों को भगवान् अर्पण कर देता है अतः वह कर्म करता हुआ भी कर्मों से लिप्त नहीं होता। भगवान् ने कर्मयोग में कर्मों के आरंभ में कामनाओं और संकल्पों का त्याग तो बताया है, पर कर्मों के आरंभ का त्याग नहीं बताया; क्योंकि कर्मयोग में निष्काम भाव से कर्म करना आवश्यक है। कर्मों को किए बिना कर्मयोग की सिद्धि ही नहीं हो सकती।[5] परंतु ज्ञानयोग और भक्तियोग में भगवान् ने संपूर्ण कर्मों के आरंभ का त्याग बताया है; जैसे- जो संपूर्ण कर्मों के आरंभ का त्यागी है, वह गुणातीत कहा जाता है[6] और जो संपूर्ण कर्मों के आरंभ का त्यागी है, वह भक्त मुझे प्रिय है।[7] कारण कि ज्ञानयोगी और भक्तियोगी की सांसारिक कर्मों से उपरति रहती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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