विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
48. गीता में समता
समता दो तरह की होती है- साधनरूपा और साध्यरूपा। साधनरूपा समता अंतःकरम की होती है और साध्यरूपा समता परमात्मतत्त्व की होती है। इसे क्रमशः साधक की समता और सिद्ध की समता भी कह सकते हैं। 1. साधक की समता- कर्मयोगी साधक सिद्धि-असिद्धि में सम रहकर कर्म करता है।[1] ज्ञानयोगी साधक में सत्-असत् का विवेक मुख्य रहता है। सत् का कभी वियोग होता नहीं और असत् कभी नित्य रहता नहीं ज्ञानयोगी में सत् स्वरूप से सदा ही समता रहती है।[2] भक्तियोगी साधक भगवन्निष्ठ होता है। वह भगवान् की मरजी में सदा ही प्रसन्न रहता है। अतः उसका सांसारिक पदार्थ, वस्तु, परिस्थिति आदि के संयोग वियोग से, आने-जाने से कोई मतलब नहीं रहता। उसका केवल भगवान् से ही मतलब रहता है। ऐसे भक्तों को भगवान् स्वयं समता देते हैं।[3] अगर कर्मयोगी में समता नहीं आ रही है तो सिद्धि-असिद्धि में उसकी महत्त्वबुद्धि है। अगर ज्ञानयोगी में समता नहीं आ रही है तो असत् पदार्थों में उसकी महत्त्वबुद्धि है। अगर भक्तियोगी में समता नहीं आ रही है तो भगवान् की कृपा की तरफ उसकी दृष्टि नहीं है। निष्कर्ष यह निकला कि विनाशी पदार्थों का महत्त्व अंतःकरण में होने से ही स्वतः सिद्ध समता का अनुभव नहीं होता। उस महत्त्व के हटते ही समता आ जाती है। तात्पर्य है कि समता के साथ मनुष्य का नित्ययोग है। केवल असत् को महत्त्व देने से ही उसमें विषमता आती है। अतः मनुष्य असत् को महत्त्व न दे। 2. सिद्ध की समता- सिद्ध कर्मयोगी,[4] सिद्ध ज्ञानयोगी[5] और सिद्ध भक्तियोगी[6]- तीनों में समता स्वतः रहती है। तात्पर्य है कि किसी भी मार्ग के साधक पर जब तक अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुख आदि का किञ्चिन्मात्र भी असर पड़ता है और वह उनसे विचलित होता है, तब तक साधक को अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि का ज्ञान तो होता है, पर उसका उस पर किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता, तब साधक में साध्यरूपा समता अटलरूप से रहती है। उस साध्यरूपा समता के प्राप्त होने पर अंतःकरण में स्वतः समता आ जाती है और अंतःकरण की समता से यह मालूम होता है कि साध्यरूपा समता प्राप्त हो गयी है।[7] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज