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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
46. गीता में योग और भोग
दूसरों को निष्कामभाव से सुख पहुँचाने के लिये, उनका हित करने के लिये ही इनके साथ जो सम्बंध जोड़ा जाता है, उससे 'योग' होता है क्योंकि उससे अपनी राग, सुख, आराम आदि का त्याग होता है। परंतु किसी वस्तु, व्यक्ति से सुख लेने के लिये उसके साथ जो सम्बंध जोड़ा जाता है, उससे 'भोग' होता है। वस्तु, व्यक्ति से रागपूर्वक सम्बन्ध जोड़ने से परमात्मा के नित्य-सम्बन्ध का अनुभव नहीं होता। वस्तु, व्यक्ति से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर एक सुख होता है। अगर साधक उस सुख का भोग न करे तो ‘योग’ हो जायेगा। अगर वह उस सुख का भोग करेगा, उस सुख में राजी हो जाएगा तो योग नहीं होगा, प्रत्युत ‘भोग’ हो जाएगा। अगर साधक भोगबुद्धि का सर्वथा त्याग कर दे तो सभी साधनों से ‘योग’ (परमात्मा के नित्य संबंध का अनुभव) हो जाता है। जैसे- कर्मयोग में केवल सृष्टिचक्र की मर्यादा को सुरक्षित रखने के लिए, केवल कर्तव्य परंपरा की रक्षा के लिए ही निष्काम भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने से कर्मों का प्रवाह केवल संसार की तरफ हो जाता है और स्वयं का कर्मों से संबंध-विच्छेद होकर, भोग का त्याग होकर परमात्मा के साथ योग हो जाता है।[1] ज्ञानयोग में सत्-असत् के विवेक-विचार से वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदि परिवर्तनशील से संबंध विच्छेद होता है, जिससे परमात्मा के साथ योग हो जाता है अर्थात् परमात्मा के साथ अपनी स्वतः सिद्ध अभिन्नता का अनुभव हो जाता है।[2] भक्तियोग में संपूर्ण क्रिया, पदार्थ आदि को भगवान् का ही समझकर भगवान् को अर्पित किया जाता है, जिससे उन क्रिया, पदार्थ आदि से संबंध विच्छेद होकर भगवान् के साथ योग हो जाता है अर्थात् भगवान् में आत्मीयता हो जाती है।[3] ध्यानयोग में निरंतर परमात्मा में लगाते-लगाते जब मन संसार से सर्वथा उपराम हो जाता है, केवल ध्येय वस्तु रह जाती है, तब परमात्मा के साथ योग हो जाता है, अपने स्वरूप का अनुभव हो जाता है।[4] अष्टांगयोग में क्रमशः यम, नियम आदि आठों अंगों का निष्काम भावपूर्वक पालन किया जाए तो उससे संसार के संबंध का त्याग हो जाता है और परमात्मा के साथ योग हो जाता है।[5] परंतु उसमें साधक को विशेष सावधानी रखनी चाहिए कि कहीं वह सिद्धियों में न फँस जाए। अगर वह सिद्धियों में फँस जाएगा तो भोग होगा, योग नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि किसी भी मार्ग से चलने वाले साधक को व्यवहार अवस्था में अथवा साधन अवस्था में हरदम सावधान रहना चाहिए। उसको किसी भी अवस्था में वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, पदार्थ, योग्यता, स्थिरता आदि का सुख नहीं लेना चाहिए क्योंकि सुख लेने से भोग हो जाएगा, योग नहीं होगा।[6] सात्त्विक सुख संग से, राजस सुख कर्मों की आसक्ति से और तामस सुख निद्रा, आलस्य एवं प्रमाद से बाँधता है।[7] अतः साधक सावधानी पूर्वक सात्त्विक, राजस और तामस सुख से बँधे नहीं, उसका संग न करे, तो फिर उसका परमात्मा के साथ योग हो जाएगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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