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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
41. गीता में दैवी और आसुरी सपत्ति
संसार से विमुख होकर और दैवी संपत्ति का आश्रय लेकर परमात्मा की प्राप्ति चाहने वाले दो प्रकार के होते हैं- 1. सगुणोपासक (भक्त)- सगुणोपासक में श्रद्धा-विश्वास की, भाव की प्रधानता होती है अतः वह ‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिः.......नातिमानिता’[1] इन छब्बीस गुणों को धारण करता है। यह साधक भगवान् को सब जगह देखकर सबसे पहले अभय हो जाता है, फिर इसमें अमानित्व स्वतः आ जाता है। 2. निर्गुणोपासक (ज्ञानी) निर्गुणो- पासक में शरीर-शरीरी के विवेक-विचार की प्रधानता होती है अतः वह ‘अमानित्वमदम्भित्व.....तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’[2] इन बीस गुणों को धारण करता है। इस साधक में सबसे पहले अमानित्व आता है, फिर सब जगह परमात्मा का अनुभव करने से वह अभय हो जाता है। उपर्युक्त दोनों ही प्रकार के साधकों में दैवी संपत्ति साधन रूप से रहती है। सिद्ध महापुरुषों में यह दैवी संपत्ति स्वतः- स्वाभाविक रहती है। वास्तव में सिद्ध महापुरुष गुणों से अतीत होते हैं परंतु उन्होंने पहले साधन-अवस्था में दैवी संपत्ति को लेकर साधन किया है; अतः सिद्ध होने पर भी उनमें दैवी संपत्ति का स्वभाव बना हुआ रहता है। उन सिद्धों में से सिद्ध भक्तों के स्वाभाविक दैवी संपत्ति के गुणों का वर्णन बारहवें अध्याय के तेरहवें से उन्नीसवें श्लोक तक हुआ है और सिद्ध ज्ञानियों के स्वाभाविक दैवी संपत्ति के गुणों का वर्णन चौदहवें अध्याय के बाईसवें से पचीसवें श्लोक तक हुआ है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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