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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
39. गीता में स्वाभाविक और नये परिवर्तम का वर्णन
गीता ने स्थितप्रज्ञ, गुणातीत और भक्तों के लक्षणों के रूप में नये परिवर्तन का ही वर्णन किया है। मनुष्य नया परिवर्तन इतना कर सकता है कि जिसका कोई पार नहीं है। नये परिवर्तन से मनुष्य भगवान् का भी आदरणीय हो सकता है। इस नये परिवर्तन से भक्तों का शरीर चिन्मय हो जाता है; जैसे तुकाराम जी महाराज सशरीर वैकुण्ठ चले गये, कबीर जी का शरीर पुष्पों में परिणत हो गया, मीराबाई का शरीर भगवान् के विग्रह में समा गया। जनाबाई और फूलीबाई की थेपड़ियों से नाम ध्वनि निकलती थी। तुकारामजी के चरणचिह्नों से विट्ठल नाम की ध्वनि निकलती थी। मरने के बाद भी चोखामेला की हड्डियों से विट्ठल नाम की ध्वनि सुनाई पड़ती थी। भगवान् ने गीता में भक्तों के चार प्रकार बताये हैं- अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और प्रेमी[1] ये चार प्रकार जन्म से नहीं है, प्रत्युत कर्म से हैं। इनमें पुराने कर्म नहीं हैं, प्रत्युत नये कर्म हैं, नया परिवर्तन है। इस नये परिवर्तन का अवसर इस मनुष्य शरीर में ही है, अन्य शरीरों में नहीं। कहीं-कहीं अवाद रूप से पशु-पक्षी आदि में भी नया परिवर्तन देखने में आता है। बालक का पालन पोषण और रक्षण करना- यह माँ के द्वारा किया गया नया परिवर्तन (कर्म) है; परंतु बालक का बढ़ना नया परिवर्तन नहीं है। कारण कि माँ ने बालक को बड़ा नहीं किया, प्रत्युत वह स्वाभाविक बड़ा हो गया। भोजन करना नया परिवर्तन है, पर भोजन का पचना स्वाभाविक परिवर्तन है। दवाई लेना नया परिवर्तन है, पर दवाई से रोग शांत हो जाना स्वाभाविक परिवर्तन है। ऐसे ही शरीर का जन्मना, बढ़ना आदि तो स्वतः स्वाभाविक होता है, पर मनुष्य शरीर में शुभाशुभ कर्म करके स्वर्ग, नरक अथवा चौरासी लाख योनियों में जाना, भगवद्भजन करना, प्राणियों की सेवा करना, अपने कर्तव्य का पालन करना, अपने विवेक का आदर करना आदि नया परिवर्तन (कर्म) है। इस नये परिवर्तन के कारण ही पापी से पापी, दुराचारी से दुराचारी मनुष्य भी ज्ञान प्राप्त करके अपना उद्धार कर सकता है,[2] भगवान् को प्राप्त करने का एक निश्चय करके अनन्यभक्त बन सकता है तथा सदा रहने वाली शांति को प्राप्त कर सकता है,[3] और केवल लोकसंग्रह के लिए, कर्तव्य-परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए, केवल दूसरों के हित के लिए कर्तव्य-कर्म करके संपूर्ण पापों को नष्ट कर सकता है।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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