विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
35. गीता में विविध विद्याएँ
9. यज्ञ करने की विद्या- जो भी यज्ञ किया जाए, वह फल की इच्छा का त्याग करके किया जाए तथा ‘यज्ञ करना कर्तव्य है’- ऐसा समझकर किया जाए तो वह यज्ञ सात्त्विक होता है, और गुणातीत करने वाला है[1] 10. कर्मों को सत् बनाने की विद्या- यदि कर्मों को भगवान् के अर्पण कर दिया जाए तो सब कर्म सत् हो जाते हैं, निर्गुण हो जाते हैं।[2] 11. पूजन की विद्या- मनुष्य अपने वर्ण आश्रम के अनुसार जो शास्त्रनियत कर्म करता है, उन्हीं कर्मों को वह परमात्मा के पूजन की सामग्री बना ले अर्थात् अपने-अपने कर्मों के द्वारा सर्वव्यापी परमात्मा का पूजन करे, उन कर्मों को परमात्मा के प्रीत्यर्थ करे, न कर्मों से अपना कोई स्वार्थ न रखे।[3] 12. समता लाने की विद्या- राग द्वेष के वश में होकर कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिए।[4] जो भी कार्य करे, शास्त्र को सामने रखकर ही करे क्योंकि कर्तव्य अकर्तव्य का निर्णय करने में शास्त्र ही प्रमाण है।[5] महापुरुष के आचरणों और वचनों के अनुसार ही सब क्रियाएँ करे।[6] कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में सम रहे।[7] ऐसा करने से अपने में समता आ जाती है। तात्पर्य है कि करने में राग द्वेष न करे और होने में हर्षशोक न करे। ऐसा करने में मनुष्यमात्र स्वतंत्र है, सबल है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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