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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
35. गीता में विविध विद्याएँ
भगवान् के सिवाय अन्य का आश्रय लेने से ही शोक होता है। कारण कि अन्य तो टिकने वाला है ही नहीं, पर मनुष्य उसको रखना चाहता है अतः अन्य के जाने से अथवा जाने की आशंका से मनुष्य को शोक होता है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि तुम सब आश्रयों को छोड़कर केवल मेरी शरण हो जाओ मैं तुम्हें संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम चिंता-शोक मत करो।[1] 2. कर्तव्य कर्म करने की विद्या- मनुष्य का कर्तव्य-कर्म करने में ही अधिकार है, फल की प्राप्ति में नहीं।[2] कारण कि फल प्राप्त करना मनुष्य के अधीन नहीं है, प्रत्युत भगवान् के विधान के अधीन है। परंतु फल का त्याग करने में मनुष्य सर्वथा स्वतंत्र है, समर्थ है। अतः भगवान् कहते हैं कि साधक कर्मफल का त्याग करके नैष्ठि की शांति को प्राप्त होता है।[3] इसलिए मनुष्य को फलासक्ति का त्याग करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए क्योंकि फलासक्ति रहित अपने कर्तव्य का पालन करने से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।[4] 3. त्याग की विद्या- प्रत्येक कर्म का आरंभ और अंत होता है तथा उसके फल का भी संयोग और वियोग होता है। अतः जो कर्म और कर्मफल हमारे साथ नहीं रह सकता तथा हम उसके साथ नहीं रह सकते, ऐसे कर्म को साथ में रखने की और फल को प्राप्त करने की इच्छा का त्याग करके तत्परतापूर्वक शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करना चाहिए।[5] 4. पाप न लगने की विद्या- जय-पराजय, लाभ-हानि सुख-दुख आदि में समता रखकर अपने कर्तव्य का आचरण किया जाए तो पाप नहीं लगता।[6] तात्पर्य है कि समता के आने से पुराना पाप नष्ट हो जाता है और नया पाप लगता नहीं।[7] जो मनुष्य सब तरह की आशाओं को छोड़कर केवल शरीर निर्वाह संबंधी कर्म करता है, उसको भी पाप नहीं लगता[8] क्योंकि उसके भीतर सुखबुद्धि, भोगबुद्धि नहीं है। स्वभावनियत अर्थात् शास्त्रनियत कर्म करने वाला मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।[9] जिसमें ‘मैं कर्म करता हूँ’- ऐसा अहंकार नहीं है और जिसमें ‘मुझे कर्मफल मिले’- ऐसी फलेच्छा नहीं है, वह मनुष्य संपूर्ण प्राणियों को मारकर भी न तो मारता है और न उस पाप से बँधता।[10] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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