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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
33. गीता में त्रिविध चक्षु
जिससे नित्य अनित्य, सत्-असत् जड़-चेतन का ठीक तरह से बोध हो जाता है और जिससे अपने स्वरूप का अनुभव हो जाता है, उसे ‘ज्ञानचक्षु’ (विवेकदृष्टि) कहते हैं। गीता में भगवान् ने दो जगह ज्ञानचक्षु का वर्णन किया है-
इस बात को रागपूर्वक विषयों का सेवन करने वाले मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, प्रत्युत ज्ञानचक्षु वाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं।[2] इस प्रकार जानना ज्ञानचक्षु से ही होता है, स्वचक्षु से नहीं। भगवान् और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष ही ज्ञानचक्षु दे सकते हैं, सामान्य मनुष्य नहीं। कारण कि सामान्य मनुष्यों को खुद को ऐसा ज्ञानचक्षु प्राप्त नहीं है, फिर वे दूसरों को कैसे दे सकते हैं? शास्त्रों का जानकार (पंडित) भी सत्-असत् का विवेचन तो कर सकता है, पर किसी को ज्ञानचक्षु नहीं दे सकता क्योंकि उसे खुद को हो अनुभव नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं कर सकता, प्रत्युत इस ज्ञानचक्षु को प्राप्त करने के मात्र मनुष्य अधिकारी हैं। इतना ही नहीं, पापी से पापी मनुष्य भी इसे प्राप्त करने का अधिकारी है।[3] कारण कि मनुष्य शरीर केवल अपना उद्धार करने के लिए ही मिला है। अतः मनुष्य इस ज्ञानचक्षु को भक्ति करके भगवान् से प्राप्त कर सकता है[4] अथवा तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों के अनुकूल बनकर प्राप्त कर सकता है[5] अथवा तत्परता से श्रद्धापूर्वक साधन करके भी प्राप्त कर सकता है।[6] इस ज्ञानचक्षु के प्राप्त होने पर मोह (अज्ञानान्धकार) सदा के लिए मिट जाता है।[7] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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