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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
29. गीता में प्राणिमात्र के प्रति हित का भाव
लोभी व्यक्ति के द्वारा स्वतः ही लोभ का और उदार व्यक्ति के द्वारा स्वतः ही उदारता का प्रचार होता है। जिनके हृदय में रुपयों का, मान-बड़ाई का महत्त्व है, उनके द्वारा स्वतः रुपयों आदि के महत्त्व का प्रचार होता है और जिनके हृदय में रुपयों आदि का महत्त्व नहीं है, उनके द्वारा स्वतः त्याग का प्रचार होता है। जो भगवान् के गुण, लीला, प्रभाव, महत्त्व आदि का कथन करते हैं, दूसरों को सुनाते हैं, वे संसार को बहुत देने वाले (महादानी) हैं- ‘भूरिदा जनाः’[1] जो रुपये पैसे, अन्न, जल आदि देने वाले हैं, वे ‘भूरिदा’ (बहुत देने वाले) नहीं है, प्रत्युत ‘अल्पदा’ (थोड़ा देने वाले) हैं। कारण कि प्राकृत चीजें केवल प्राणियों के शरीर तक ही पहुँचती हैं परंतु जो प्रेमपूर्वक भगवान् की कथा करने वाले हैं, भगवद्गुणों का गान करने वाले हैं, वे लोगों को जड़ता से ऊपर उठाकर चिन्मय तत्त्व की तरफ ले जाते हैं। संपूर्ण संसार मिलकर एक प्राणी को भी सुखी नहीं कर सकता, फिर एक मनुष्य संपूर्ण प्राणियों को सुखी कैसे कर सकता है? अतः संपूर्ण प्राणियों के हित का तात्पर्य यह है कि सबके हित में रुचि हो, प्रीति हो सबको सुख पहुँचाने का भाव हो। संपूर्ण प्राणियों के हित में प्रीति होने से अपनी सुखबुद्धि का, भोग और संग्रहबुद्धि का, स्वार्थबुद्धि का स्वाभाविक ही त्याग हो जाता है और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है क्योंकि अपनी सुखबुद्धि आदि ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में बाधक है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।31।9)
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