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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
29. गीता में प्राणिमात्र के प्रति हित का भाव
जैसे स्वयं (जीवात्मा) परमात्मा से अभिन्न है, ऐसे ही शरीर आदि सामग्री संसार से अभिन्न है। परंतु जब तक सबके हित की भावना दृढ़ नहीं होती, तब तक अपनी कहलाने वाली सामग्री संसार की नहीं दीखती, जिससे अपने सुख आराम की कामना बढ़ती है, दृढ़ होती है। जब तक कामना, ममता आदि रहती है, तब तक जड़ता के साथ तादात्म्य रहता है, जो जन्म मरण का खास कारण है।[1] परंतु संपूर्ण प्राणियों के हित में रति होने से यह तादात्म्य सहज ही टूट जाता है क्योंकि प्राणिमात्र के हित में रति होने से सांसारिक पदार्थ आदि का प्रवाह प्राणियों के हित की तरफ हो जाता है, अपनी तरफ नहीं रहता। भगवान् ने गीता में दो बार ‘सर्वभूतहिते रताः’[2] कहा है। पाँचवें अध्याय के पचीसवें श्लोक में भगवान् ने इन पदों से कहा कि संपूर्ण प्राणियों के हित में रति होने से साधक निर्गुण ब्रह्मा को प्राप्त हो जाते हैं और बारहवें अध्याय के चौथे श्लोक में इन पदों से कहा कि संपूर्ण प्राणियों के हित में रति होने से साधक मेरे को (सगुण को) प्राप्त हो जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि दूसरों के हित में प्रीति होने पर जड़ता का, अपने सुख-आराम का त्याग सुगमता पूर्वक हो जाता है। जड़ता का त्याग होने पर साधक निर्गुण की प्राप्ति चाहे तो निर्गुण की प्राप्ति हो जाएगी और सगुण की प्राप्ति चाहे तो सगुण की प्राप्ति हो जायेगी अर्थात् प्रभु के साथ जो स्वाभाविक प्रेम है, वह प्रकट हो जाएगा। ‘सर्वभूतहिते रताः’ पद दोनों ही बार ज्ञानयोग के प्रकरण में देने का तात्पर्य यह है कि ज्ञानयोग के साधक में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की उपासना मुख्य रहती है। जो अहम् अनादिकाल से शरीर के संबंध से चला आ रहा है, उस अहम का त्याग करने के लिए संपूर्ण प्राणियों के हित में रति होनी बहुत जरूरी है। प्राणियों के हित में रति होने से अहम सुगमतापूर्वक छूट जाता है। अहम के छूटने से अपने स्वरूप का अनुभव हो जाता है। फिर बंधन का कोई कारण नहीं रहता। प्राणिमात्र के हित में रति का यह माप तौल नहीं है कि साधक प्राणिमात्र के लिए कितना कार्य करता है, उनको कितनी वस्तुएँ देता है? क्योंकि क्रिया और पदार्थ सीमित होते हैं। क्रियाओं का भी आरंभ और अंत होता है तथा पदार्थों का भी संयोग और वियोग होता है। परंतु संपूर्ण प्राणियों के हित का भाव असीम होता है। असीम भाव से ही असीम तत्त्व (परमात्मा) की प्राप्ति होती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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