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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
26. गीता में मनुष्यों की श्रेणियाँ
ज्ञानयोगी साधक सत्-असत् के ज्ञान- (विवेक) के द्वारा अपने स्वरूप का बोध चाहता है[1] और इसी में अपना पुरुषार्थ मानता है। सिद्ध ज्ञानयोगी सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों की वृत्तियों के आने पर भी राग द्वेष नहीं करता। गुण ही गुणों में बरत रहे हैं अर्थात् संपूर्ण क्रियाएँ गुणों में ही हो रही हैं- ऐसा समझकर अपने स्वरूप में स्थित रहता है। वह सदा ही सुख-दुख में सम रहता है तथा उस पर निन्दा स्तुति, मान-अपमान का असर नहीं पड़ता।[2] कर्मयोगी साधक केवल लोकसंग्रह के लिए, कर्तव्य परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करता है अर्थात अपने लिए कर्म न करके केवल दूसरों के हित के लिए ही सब कर्म करता है।[3] सिद्ध कर्मयोगी की अपने स्वरूप में ही रति, तृप्ति और संतुष्टि रहती है। उसको न तो कर्म करने से मतलब रहता है और न कर्म न करने से ही मतलब रहता है। उसका किसी भी प्राणी के साथ स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।[4] उसकी संपूर्ण पदार्थ, प्राणी आदि में समबुद्धि रहती है।[5] ध्यानयोगी साधक संपूर्ण इंद्रियों का संयम करके और एकांत में रहकर सगुण साकार का, अपने स्वरूप का अथवा निर्गुण-निराकार का ध्यान करता है।[6] सगुण-साकार के ध्यान से सिद्ध हुआ ध्यानयोगी ‘सबमें भगवान् हैं और सभी भगवान् में हैं’- ऐसा अनुभव करता है। फिर वह सब काम करते हुए भगवान् में ही स्थित रहता है।[7] अपने स्वरूप के ध्यान से सिद्ध हुआ ध्यानयोगी अपने आपको संपूर्ण प्राणियों और संपूर्ण प्राणियों को अपने आप में देखता है अतः वह सर्वत्र समबुद्धिवाला होता है।[8] निर्गुण-निराकार के ध्यान से सिद्ध हुआ ध्यानयोगी अपने शरीर की उपमा से संपूर्ण प्राणियों में तथा उनके सुख-दुख में अपने को समान देखता है।[9] तात्पर्य है जैसे कि साधारण मनुष्य की अपने शरीर की पीड़ा को दूर करके उसको सुख पहुँचाने की स्वाभाविक चेष्टा होती है, ऐसे उस ज्ञानी महापुरुष की दूसरे का दुःख दूर करके उसको सुख पहुँचाने की स्वाभाविक चेष्टा होती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।11-30, 13।19-34)
- ↑ (14-22-25)
- ↑ (3।9)
- ↑ (3।17-18)
- ↑ (6।8-9)
- ↑ (6।10-28)
- ↑ (6।30-31)
- ↑ (6।29)
- ↑ (6।32)
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