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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
25. गीता में जीव की गतियाँ
3. पशु-पक्षी आदि की योनियों में आये प्राणी और 4. नरकों से आये प्राणी - पशु-पक्षी आदि की योनियों में तथा नरकों में गये हुए प्राणी कभी भगवान् की अहैतु की कृपा से फिर मनुष्यलोक में आ जाते हैं। उनको भगवान् संपूर्ण जन्मों का अंत करने वाला यह मनुष्य शरीर देकर पूरी स्वतंत्रता देते हैं कि वे चाहे जो कुछ कर सकते हैं और चाहे जहाँ जा सकते हैं। तात्पर्य है कि वे सकामभाव से शुभकर्म करके स्वर्गादि लोकों में जा सकते हैं[1] अथवा अशुभ (पाप) कर्म करके चौरासी लाख योनियों तथा नरकों में जा सकते हैं[2] अथवा विवेक विचार के द्वारा जड़ता से संबंध-विच्छेद करके मुक्त हो सकते हैं[3] अथवा निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्य कर्म का पालन करके परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो सकते हैं[4] अथवा भगवान् की शरण होकर भगवान् को प्राप्त हो सकते हैं[5]इतना ही नहीं, भगवान् स्वयं उनका संसार सागर से उद्धार करने वाले बन जाते हैं।[6][7] 4. भगवत्प्राप्त महापुरुष- जो जीव भगवान् को प्राप्त हो गये हैं, भगवद्धाग में गये हैं, वे भी भगवान् की इच्छा से अन्य जीवों का उद्धार करने के लिए कारक पुरुष के रूप में इस मनुष्यलोक में आते हैं। उनका मनुष्यलोक में जन्म लेना कर्मों के परवश नहीं होता। वे स्वयं श्रेष्ठ आचरण करके लोगों को अच्छे कर्मों में लगाते हैं अथवा अपने वचनों के द्वारा लोगों को सही रास्ता बताते हैं।[8] इस प्रकार अपना कार्य पूरा करके वे फिर भगवान् के पास चले जाते हैं। 5. भगवान् के नित्य परिकर- जब भगवान् साधु पुरुषों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना करने के लिए मनुष्यलोक में आते हैं,[9] तब भगवद्धाम में रहने वाले भगवान के नित्य परिकर (पार्षद) भी भगवान् के साथ उनके सखा आदि के रूप में इस मनुष्यलोक में आते हैं। वे यहाँ भगवान् के साथ ही रहते हैं, खाते-पीते हैं, खेलते हैं, उनको सुख पहुँचाते हैं। जब भगवान् अपने अवतार की लीला समाप्त करते हैं और अंतर्धान हो जाते हैं, तब वे पार्षद भी शरीर छोड़कर उनके साथ भगवद्धाम में चले जाते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।42-43; 7।20-22; 9।20)
- ↑ (16।16, 19-20)
- ↑ (13।34)
- ↑ (2।51, 5।12)
- ↑ (18।56)
- ↑ (12।7)
- ↑ भगवान् ने कृपा करके जीव को शुभकर्मों के फल भुगताकर, शुद्ध करके अपनी गोद में लेने के लिए स्वर्गादि लोकों की रचना की अशुभकर्मों का फल भुगताकर, शुद्ध करके अपनी गोद में लेने के लिए चौरासी लाख योनियों और नरकों की रचना की और अनुकूलता-प्रतिकूलता के द्वारा शुभ-अशुभ कर्मों को समाप्त करके अपनी गोद में लेने के लिए मनुष्य योनि की रचना की। मनुष्य योनि में भगवान् ने जीव को अपनी प्राप्ति की, जन्म-मरण से मुक्त होने की पूरी स्वतंत्रता दी है। मनुष्य योनि में जीव जीते जी भगवान् को प्राप्त कर सकता है और जीते जी होश न आये तो अंत समय में भी भगवान् को याद करके उन्हें प्राप्त कर सकता है। (ख) इस मनुष्य लोक में जीवों का जहाँ-कहीं, जिस किसी योनि में जन्म होता है, वह प्रायः ऋणानुबंध (लेन-देन के संबंध) से ही होता है। तात्पर्य यह है कि किसी से लेने के लिए और किसी को देने के लिए आपस के संबंध को लेकर ही संपूर्ण जीवों का जन्म होता है। मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए कर्तव्य कर्म करके शुभ अशुभ कर्मों से अर्थात् ऋणानुबंध से मुक्त हो सकता है(4।23) अथवा सत् असत् के विवेक द्वारा अपने स्वरूप में स्थित होकर संपूर्ण पापों से अर्थात् ऋणानुबंध से मुक्त हो सकता है (4।36) अथवा भगवान् की शरण होकर संपूर्ण पापों से अर्थात् ऋणानुबंध से मुक्त हो सकता है।(18।66) इस ऋणानुबंध से मुक्त होने के लिए मनुष्य के सिवाय दूसरे प्राणी असमर्थ हैं; क्योंकि उनमें इसकी योग्यता नहीं है और अधिकार भी नहीं है; परंतु मनुष्य इसमें सर्वथा स्वतंत्र है, सबल है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य जन्म में जितने भी जीव आते हैं, वे सभी अपना उद्धार अथवा पतन करने में स्वतंत्र हैं, परतंत्र नहीं हैं।
- ↑ (3।21)
- ↑ (4।8)
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