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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
24. गीता में सृष्टि-रचना
चौदहवें अध्याय के तीसरे-चौथे श्लोकों में प्रकृति को बीज धारण करने का स्थान और अपने को बीज धारण करने का स्थान और अपने को बीज प्रदान करने वाला पिता बता कर भगवान ने महासर्ग का वर्णन किया है। सत्रहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में 'जिस परमात्मा के ऊँ तत् और सत्- ये तीन नाम हैं, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदि में वेद, ब्राह्मण और यज्ञों की रचना की है'-ऐसा कहकर महासर्ग का वर्णन किया गया है। अठारहवें अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में 'स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्मों का विभाग किया गया हैं- ऐसा कहकर भगवान ने महासर्ग का वर्णन किया है। 2. सर्ग- ब्रह्मा जी के सोने पर प्रलय होता है और जागने पर सर्ग होता है। सर्ग के समय ब्रह्मा जी के सूक्ष्मशरीर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है। तात्पर्य है कि प्रलय के समय संपूर्ण प्राणी अपने-अपने सूक्ष्म और कारण शरीरों के सहित ब्रह्मा जी के सूक्ष्मशरीर में लीन हो जाते हैं और सर्ग के समय पुनः उन सूक्ष्म और कारण शरीरों के सहित ब्रह्मा जी के सूक्ष्मशरीर से प्रकट हो जाते हैं।[1] तीसरे अध्याय के दसवें श्लोक में ‘प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) के सहित प्रजा की रचना की’- ऐसा कहकर सर्ग का वर्णन किया गया है। [महासर्ग में तो भगवान् जीवों का कारण शरीर के साथ विशेष संबंध करा देते हैं- यही भगवान् के द्वारा प्राणियों की रचना करना है और सर्ग में ब्रह्मा जी जीवों का सूक्ष्मशरीर के साथ विशेष संबंध करा देते हैं- यही ब्रह्माजी के द्वारा प्राणियों की रचना करना है।] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (8।18-19)
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