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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
16. गीता और गुरु तत्त्व
गीता ने ज्ञान के प्रकरण में ‘प्रणिपातेन परिप्रश्रेन’[1] और ‘आचार्योपासनम्’[2] पदों से आचार्य की सेवा, उपासना की बात कही है। उसका तात्पर्य यही है कि ज्ञानमार्गी साधक में ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा अभिमान रहने की ज्यादा सम्भावना रहती है। अतः साधक को चेताने के लिए तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त आचार्य या गुरु की अधिक आवश्यकता रहती है। परंतु वह आवश्यकता भी तभी रहती है, जब साधक में तीव्र जिज्ञासा की कमी हो अथवा उसकी ऐसी भावना हो कि गुरुजी उपदेश देंगे, तभी ज्ञान होगा। तीव्र जिज्ञासा होने पर साधक तत्त्व का अनुभव किए बिना किसी भी अवस्था में संतोष नहीं कर सकता, किसी भी संप्रदाय में अटक नहीं सकता और किसी भी विशेषता को लेकर अपने में अभिमान नहीं ला सकता। ऐसे साधक की जिज्ञासा पूर्ति भगवत्कृपा से हो जाती है। गुरु-शिष्य के संबध से ही ज्ञान होता है- ऐसी बात देखने में नहीं आती। कारण कि जिन लोगों ने गुरु बना लिया है, गुरु शिष्य का संबंध स्वीकार कर लिया है; उन सबको ज्ञान हो गया हो- ऐसा देखने में नहीं आता। परंतु तीव्र जिज्ञासा होने पर ज्ञान हो जाता है- ऐसा देखने में, सुनने में आता है। तीव्र जिज्ञासु के लिए गुरु शिष्य का संबंध स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। तात्पर्य है कि जब तक स्वयं की तीव्र जिज्ञासा नहीं होती, तब तक गुरु-शिष्य का संबंध स्वीकार करने पर भी ज्ञान नही होता और तीव्र जिज्ञासा होने पर साधक गुरु शिष्य के संबंध के बिना ही किसी से भी ज्ञान ले लेता है। तीव्र जिज्ञासावाले साधक को भगवान् स्वप्न में भी शुकदेव आदि (जो पहले हो गये हैं) संतों से मंत्र दिला देते हैं। शिष्य बनने पर गुरु के उपदेश से ज्ञान हो ही जाएगा- यह नियम नहीं है। कारण कि उपदेश मिलने पर भी अगर स्वयं की जिज्ञासा, लगन नहीं होगी तो शिष्य उस उपदेश को धारण नहीं कर सकेगा। परंतु तीव्र जिज्ञासा, श्रद्धा विश्वास होने पर मनुष्य बिना किसी संबंध के ही उपदेश को धारण कर लेता है- ‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’[3] तात्पर्य है कि ज्ञान स्वयं की जिज्ञासा, लगन से ही होता है, गुरु बनाने मात्र से नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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