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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
12. गीता में भगवान् का विविध रूपों में प्रकट होना
दम्भ, दर्प, अभिमान आदि जितने भी दुर्गुण हैं, वे सभी मनुष्यों के अपने बनाये हुए हैं अर्थात् ये मेरे नहीं हैं; परंतु अभय, अहिंसा, सत्य, दया, क्षमा आदि जितने भी उत्तम गुण हैं, वे सभी मेरे हैं और मेरी प्राप्ति कराने वाले हैं- यह बात बताने के लिए भगवान सोलहवें अध्याय में अर्जुन के सामने ‘दैवी-संपत्ति’ रूप से प्रकट होते हैं।[1] अगर कोई परमात्म प्राप्ति के उद्देश्य से यज्ञ, तप, दान आदि शुभ कर्म करे और उनमें कोई कमी (अंग वैगुण्य) रह जाय तो जिस भगवान् से यज्ञ आदि रचे गये हैं, उस भगवान् का नाम लेने से उस कमी की पूर्ति हो जाती है- यह बात बताने के लिए भगवान् सत्रहवें अध्याय में अर्जुन के सामने ‘ऊँ तत् सत्’ नामों के रूप से प्रकट होते हैं।[2] संपूर्ण गीतोपदेश का सार अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि सभी साधनों का सार मेरी शरणागति है- यह बताने के लिए भगवान् अठारहवें अध्याय में अर्जुन के सामने ‘सर्वशरण्य’- रूप से प्रकट होते हैं[3] तात्पर्य है कि साधक का भगवान् के प्रति ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके भाव के अनुसार अपने को प्रकट करते हैं, जिससे साधक भक्त के भाव, श्रद्धा, विश्वास भी बढ़ते रहते हैं। इनके बढ़ते-बढ़ते अंत में भगवत्प्राप्ति हो जाती है। साधक को सावधानी इस बात की रखनी है कि उसका अनन्यभाव कभी डिगे नहीं, अनन्यभाव से वह कभी विचलित न हो। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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