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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
6. गीता में मूर्ति-पूजा
इसी तरह गाय, तुलसी, पीपल, ब्राह्मण, तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त, गिरिराज गोवर्धन, गंगा, यमुना आदि का पूजन भी भगवत्पूजन है। इनका पूजन करने से ‘सब जगह परमात्मा है’ यह बात सुगमता से अनुभव में आ जाती है; अतः सब जगह परमात्मा का अनुभव करने में गाय आदि का पूजन बहुत सहायक है। कारण कि पूजा करने वाले ने ‘सब जगह परमात्मा है’- ऐसा मानना तो शुरू कर दिया है। परंतु जो किसी का भी पूजन नहीं करता, केवल बातें ही बनाता है, उसको ‘सब जगह परमात्मा हैं’- इसका अनुभव नहीं होगा। तात्पर्य है कि मूर्ति में भगवान् का पूजन करना कल्याण का, श्रेय का साधन है। भगवत्पूजन के सिवाय हाड़ मांस की पूजा करना अर्थात् अपने शरीर को सुंदर-सुंदर गहनों कपड़ों से सजाना, मकान को बढ़िया बनवाना तथा उसे सुंदर-सुंदर सामग्री सजाना, श्रृंगार करना आदि मूर्तिपूजा ही है, जो कि पतन में ले जाने वाली है। ज्ञातव्य
भगवान् सब जगह परिपूर्ण हैं- ऐसा प्रायः सभी आस्तिक मानते हैं; परंतु वास्तव में ऐसा मानना उन्हीं का है, जिन्होंने मूर्ति, वेद, सूर्य, पीपल, तुलसी, गाय आदि में भगवान् को मानकर उनका पूजन शुरू कर दिया है। कारण कि जो मूर्ति, वेद, सूर्य आदि में भगवान् मानते हैं, वे स्वतः सब जगह, सब प्राणियों में भगवान् को मानने लग जाएंगे। जो केवल मूर्ति आदि में ही भगवान् को मानते हैं, उनको ‘प्राकृत (आरंभिक) भक्त’ कहा गया है[1] क्योंकि उन्होंने एक जगह भगवान् का पूजन शुरू कर दिया; अतः वे भगवान् के सम्मुख हो गये। परंतु जो केवल ‘भगवान् सब जगह हैं’- ऐसा कहते हैं, पर उनका कहीं भी आदरभाव, पूज्यभाव, श्रेष्ठभाव नहीं है, उनको भक्त नहीं कहा गया है; क्योंकि वे ‘भगवान् सब जगह हैं’- ऐसा केवल कहते हैं, मानते नहीं; अतः वे भगवान् के सम्मुख नहीं हुए। मूर्ति में भगवान् का पूजन श्रद्धा का विषय है, तर्कका का विषय नहीं। जिनमें श्रद्धा है, उनके सामने भगवान् का महत्त्व प्रकट हो जाता है। उनके द्वारा की गयी पूजा को भगवान् ग्रहण करते हैं। उनके हाथ से भगवान् प्रसाद ग्रहण करते हैं। जैसे, करमाबाई से भगवान् ने खिचड़ी खायी, धन्ना भक्त से भगवान् ने टिक्कड़ खाये, मीराबाई से भगवान् ने दूध पिया आदि-आदि। तात्पर्य है कि श्रद्धा भक्ति से भगवान् मूर्ति में प्रकट हो जाते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते। ना तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्त: प्राकृत: स्मृत:॥ (श्रीमद्धा.11।2।47)
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