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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में विश्व रूप-दर्शन
असंख्याताश्य रुद्राख्या असंख्याताः पितामहाः। ‘असंख्य रुद्र हैं, असंख्य ब्रह्मा हैं, असंख्य विष्णु हैं, परंतु महेश्वर एक ही हैं।’ सृष्टि के प्रकाश के समय ये सब ब्रह्मा,विष्णु, शिव, अपने-अपने ब्रह्माण्ड में प्रकट हो जाते हैं और लय के समय पुनः उन सृष्टियों के साथ ही महेश्वर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसी सृष्टियाँ असंख्य हैं- यथा तरंगा जलधौ तथेमाः सृष्टयः परे। ‘जैसे समुद्र में अपार तरंगे उठती हैं वैसे ही परमेश्वर में ये सृष्टियाँ महान् वायु में रजः कणों की भाँति उत्पन्न और विलीन होती रहती हैं।’ ब्रह्माण्डों और सृष्टियों का यह हाल है। ऐसे-ऐसे अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड परम महिमामय महेश्वर के उस विराट् देह के क्षुद्रातिक्षुद्र अंगों में सुशोभित हैं। महेश्वर का वह विराट् देह ऐसा विलक्षण है कि अनन्त सृष्टि की समस्त दशाओं का उसके अंदर साक्षात् समावेश है। उसमें समस्त कालों के, समस्त सृष्टियों के, सृष्टियों के अंदर होने वाली समस्त भूत, वर्तमान और भविष्य की घटनाओं के प्रत्यक्ष दृश्य उपस्थित हैं। कालभेद और देशभेद हमारी दृष्टि में हैं। भगवान् में भूत या भविष्यत् नहीं है, वहाँ सभी कुछ वर्तमान है और इसी प्रकार सम्पूर्ण देश उनके अन्तर्गत एक ही साथ निहित हैं। जहाँ जो कुछ हो चुका है, हो रहा है, होगा और जहाँ जो कुछ था, वर्तमान है और आगे होगा, वह-क्रिया और वस्तु-सब एक ही साथ महेश्वर के विराट्-स्वरूप में स्थित हैं। समस्त सृष्टियों के साथ महेश्वर का अच्छेद्य सम्बन्ध है; क्योंकि सारी सृष्टियाँ महेश्वर के ही ऐश्वर-योग की लीला या खेल हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (लिंग पुराण)
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