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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
इसी लिये पुरुष अनेक हैं। यही सांख्य का सिद्धान्त है। भगवान् कहते हैं, पुरुष-प्रकृति से संसार की उत्पत्ति हुई है यह ठीक है, परंतु यही परम तत्व नहीं है, इन दोनों से परे एक मूल तत्व और भी है और ये दोनों उसी तत्व के द्विविध विकास हैं। वह मूल तत्व ही प्रकृति और पुरुष के रूप में अपने को अनेकों प्रकार से व्यक्त करता है। पुरुष और प्रकृति दोनों ही उसकी (परा और अपरा) द्विविध प्रकृति हैं। नित्य परिवर्तनशील असंख्य पदार्थों और शक्तियों से तथा उनके संयोग-वियोग एवं प्रकाश-तिरोधान से युक्त यह प्राकृत जगत् उसी की (उन भगवान् की ही) अभिव्यक्ति है।
चैदहवें अध्याय में फिर परम ज्ञान कहने की प्रतिज्ञा करके भगवान् यही बतलाते हैं कि ‘मैं ही बीजप्रद पिता हूँ, सब भूतों की उत्पत्ति मुझसे ही होती है। गुणों के स्वरूप को जानकर पुरुष गुणातीत होता है। परंतु उसका साधन भी मेरी अव्यभिचारिणी भक्ति ही है। क्योंकि अविनाशी सनातन ब्रह्म, अमृत, सनातन धर्म और अखण्ड एकरस सुख की प्रतिष्ठा मैं ही हूँ। ये सब मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं। मैं ही इन सब स्वरूपों में प्रकट हूँ।’ पंद्रहवें अध्याय में संसार वृक्ष और उसके रहस्य का वर्णन करने के बाद कहते हैं-‘जो सूर्यगत तेज जगत् को प्रकाशित करता है, अग्नि और चन्द्रमा में जो तेज है वह सब मेरा ही है। मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी ओजशक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ, मैं ही रसात्मक सोम होकर समस्त ओषधि समूह को पुष्ट करता हूँ, मैं ही प्राणिमात्र के शरीर में स्थित वैश्वानर अग्नि बनकर प्राणापानयुक्त हो उनके खाये हुए चतुर्विध अन्न को पचाता हूँ। अधिक क्या, मैं ही सब प्राणियों के हृदय में संनिविष्ट हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है। मैं ही समस्त वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं ही वेदान्त का कर्ता हूँ और मैं ही वेदों को जानने वाला भी हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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