महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
98.शोक और सांत्वना
युधिष्ठिर के मन में यह बात समा गई थी कि हमने अपने बंधु-बांधवों को मारकर राज्य पाया है इससे उनको भारी व्यथा रहने लगी। वह यही सोचते रहते। अन्त में उन्होंने संन्यास लेकर वन में जाने का निश्चय किया ताकि इस पाप का प्रायश्चित्त हो सके। इस विचार से उन्होंने सब भाइयों को बुलाकर कहा- "भाइयों! मुझे न राज करने की चाह है, न भोग की। अब तुम्हीं सब इस राज्य को संभालो। मैं तो वन में जाकर तपस्या करना चाहता हूँ।" यह सुनकर सब भाइयों पर मानो वज्र गिर गया। वे बहुत चिंतित हो उठे और बारी-बारी से सब युधिष्ठिर को समझाने लगे। अर्जुन ने गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता पर प्रकाश डाला। उसने कहा कि गृहस्थ रखते हुए किस प्रकार बहुत ही अच्छे पुण्य कर्म किये जा सकते हैं। भीमसेन ने कटु वचनों से काम लिया। वह बोला- "महाराज, आप भी उन्हीं मन्द-गति लोगों की तरह बातें करने लगे हैं जो शास्त्रों की रट लगाते हैं और धर्म का रहस्य जाने बगैर धर्म की दुहाई देते हैं। संन्याय क्षत्रियों का धर्म नहीं है; बल्कि अपने कर्तव्यों का भलीभाँति पालन करते हुए जीवन बिताना ही क्षत्रिय का धर्म है।" नकुल ने प्रमाणपूर्वक यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि कर्म-मार्ग न केवल सुगम है बल्कि उचित भी, जबकि संन्यास-मार्ग कंटीला और दुष्कर है। इस तरह देर तक युधिष्ठिर से वाद-विवाद होता रहा। सहदेव ने नकुल के पक्ष का समर्थन किया और अन्त में अनुरोध किया कि हमारे पिता, माता, आचार्य, बन्धु सब कुछ आप ही हैं। हमारी ढिठाई क्षमा करें। वह बोली- "महाराज! दुर्योधन और उसके पक्ष के लोगों को मारना बिलकुल न्याय-संगत था। उस पर पछताने की आवश्यकता ही नहीं। कुकर्म करने वालों को दण्ड देना राजा के कर्तव्यों में से ही है और उसका पालन करना उसके लिये अनिवार्य होता है। जिन्होंने पाप-कर्म किये थे उन्हीं को तो आपने दण्ड दिया है! तब फिर उस पर पश्चात्ताप करने की आवश्यकता ही क्या है? अब तो आपका यही कर्तव्य है कि राजोचित धर्म का पालन करते हुए राज्य-शासन करें और सोच न करें।" इसी चर्चा के बीच भगवान व्यास भी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने इतिहासों और शास्त्रों के कई प्रमाण देकर युधिष्ठिर की शंका दूर करने की चेष्टा की। उन्हें राज्य- शासन का भार वहन करने को राजी कर लिया। इसके बाद हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का बड़ी धूमधाम के साथ राज्याभिषेक हुआ। शासन-सूत्र ग्रहण करने से पहले युधिष्ठिर महात्मा भीष्म के पास गये, जो कुरुक्षेत्र में शर-शैया पर पड़े तपस्या करते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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