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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 50-78
मार्ग का वर्णन सुनकर दमयन्ती का मन शंकित हुआ। उसने रुंधी हुई वाणी से कहा, ‘‘मेरा हृदय कांपता है। आपके मन में क्या है? धन, वस्त्र, राज्य से विहीन, क्षुधा और श्रम से व्यथित आपको अकेले वन में छोड़कर मैं कहाँ जाऊंगी? इस घोर वन में मैं आपकी कुछ सेवा कर सकूं, यही मेरे लिए सब कुछ है। स्त्री के समान दूसरी कौन-सी दुःख की महौषधि है? आप मुझे मार्ग क्यों बता रहे हैं?’’ नल ने कहा, ‘‘दमयन्ती, ठीक कहती हो। भार्या के समान दुःखी मनुष्य का और कोई मित्र नहीं। वह आर्त की परम औषध है। मैं तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता। हे भीरु, क्यों शंका करती हो? मैं चाहे अपने को छोड़ दूँ, पर तुम्हें न छोडूँगा।’’ दमयन्ती ने कहा, ‘‘यदि आप मुझे छोड़ना नहीं चाहते, तो विदर्भ का मार्ग क्यों बता रहे हैं? मनुष्य का दुःखी मन उससे सब करा लेता है। यदि आप उचित समझें तो हम दोनों साथ ही उधर क्यों न चलें?’’ नल ने कहा,‘‘तुम ठीक कहती हो। जैसा तुम्हारे पिता का राज्य है वैसा ही मेरा, किन्तु विपत्ति में मैं वहाँ न जाऊंगा। इससे तुम्हारा शोक बढ़ेगा।’’ यह कहकर नल दमयन्ती को साथ लिये आगे बढ़ते हुए किसी गाँव की ‘सभा’[1] में पहुँचा और थककर पृथ्वी पर सो गया। नल चिन्ता में डूबा था, उसे नींद कहाँ? सोचने लगा, यह मेरे लिये बहुत दुःख उठायगी। यदि मैं इसे छोड़ दूँ तो सम्भव है, यह अपने पिता के यहाँ चली जाय। उलट-पलटकर सोचते हुए उसके मन ने दमयन्ती को छोड़ना ही उचित समझा। वहीं सभा के एक कोने में नंगी तलवार टंगी थी। चुपचाप उसकी साड़ी का आधा भाग काट कर और उससे अपने आप को ढककर वह किसी प्रकार जी कड़ा कर वहाँ से चल पड़ा। झूले पर सवार हुए की तरह वह कभी बाहर जाता और कभी फिर सभा में दमयन्ती के पास लौट आता। अन्त में कलि के प्रभाव से वह दमयन्ती को सोती छोड़कर शून्य वन में निकल पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संस्थागार या खाली पड़े हुए पंचायतीघर
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