भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
'नारायणो नरश्चैव तत्त्वमेकं द्विधाकृतम्' इस विराट कल्पना में विश्वास करने वाले भागवतों ने ऐसे महान ग्रन्थ को अपनी धर्म-संहिता के रूप में ढाल लिया हो, इसमें आश्चर्य नहीं। नारद, देवल, असित, नारायण, वासुदेव आदि के अभिप्राय पंचरात्र प्रभाव की कथा पुकारकर कह उठते हैं। उन्हें ग्रन्थ के मूल स्तर से पृथक पहचानने में कठिनाई नहीं होती । इसी महाभारत में एक तीसरी विलक्षण विशेषता यह है कि भारतवर्ष की उर्वरा भूमि में निषाद संस्कृति से सम्बन्धित जो अनेक मान्यताएं थीं, उनका भी महाभारत में भरपूर सन्निवेश हुआ है। जैसा श्री हाप्किन्स ने महाभारतीय गाथा विज्ञान (एपिक माइथोलॉजी) नामक अपने ग्रन्थ में दिखाया है, भूमि से सम्बन्धित अनेक धार्मिक विश्वास, जैसे यक्ष देवता, नाग देवता, नदी देवता, वृक्ष देवता, पर्वत देवता आदि, महाभारत के कथा प्रवाह में अनायास सम्मिलित हो गए हैं और वैदिक देवताओं के बुने हुए जाल के साथ यहाँ वे भी अपनी सत्ता जमाये हुए हैं। सम्भवतः इन नाना देवताओं का समन्वय करने का कार्य भागवत धर्म ने ही शुरू किया, जैसा कि गीता के विभूति योग नामक दसवें अध्याय के 'हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है,' इस प्रमाण से ज्ञात होता है। साहित्यिक दृष्टि से महाभारत में किसी अतीत काल की संस्कृत भाषा का अत्यन्त समृद्ध स्वरूप पाया जाता है; भाषा की ऐसी विलक्षण शक्ति अन्यत्र दुर्लभ है। उपाख्यान शैली, छोटी-छोटी कहानियों की गल्प शैली[1], दर्शन और अध्यात्म से निरूपण की संवादात्मक शैली[2]; प्रश्नोत्तर शैली[3]; केवल प्रश्नात्मक शैली[4]; नीतिकथन शैली[5]; स्तोत्र शैली[6] इत्यादि अनेक प्रकार की साहित्यिक शैलियों का अक्षय भण्डार महाभारत में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसमें पंचतंत्र की अनागतविधाता, प्रत्युत्पन्नमति और दीर्घसूत्री इन तीन मछलियों की कहानी भी है
- ↑ सनत्सुजात पर्व, उद्योग 42-46; अनुगीता, अश्वमेध अध्याय 16-51
- ↑ वन. 180-181; यक्ष-युधिष्ठिर प्रश्नोत्तरी, वन. अध्याय 313
- ↑ नारद के मुख से राजधर्मानुशासन, सभा. 5
- ↑ विदुरनीति, उद्योग. 33-40
- ↑ नारदकृत महापुरुषस्तव शान्ति 338; भीष्मकृत कृष्णस्तवराज, शान्ति. 47; भगवन्नामनिरुक्त, शान्ति 341; व्यासोक्त शतरुद्रिय, अनु. 161; शिवसहस्रनाम शान्ति 284
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