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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
59. गीता में परमात्मा और जीवात्मा का स्वरूप
उपासना की दृष्टि से परमात्मा के तीन स्वरूप माने गये हैं- सगुण निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण साकार। सौंदर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य आदि दिव्य गुणों से उक्त और प्रकृति तथा उसके कार्य संसार में परिपूर्ण रूप से व्यापक परमात्मा ‘सगुण निराकार’ कहलाते हैं। जब साधक परमात्मा को दिव्य गुणों से रहित मानता है अर्थात् उसकी दृष्टि केवल निर्गुण परमात्मा की तरफ रहती है, तब परमात्मा का वह स्वरूप ‘निर्गुण-निराकार’ कहलाता है। सगुण-निराकार परमात्मा जब अपनी दिव्य प्रकृति को अधिष्ठित करके अपनी योगमाया से लोगों के सामने प्रकट हो जाते हैं, तब वे ‘सगुण-साकार’ कहलाते हैं। इन तीनों स्वरूपों का वर्णन गीता में इस प्रकार हुआ है- 1. सगुण-निराकार - अभ्यासयोग से युक्त एकाग्र मन से परम पुरुष का चिंतन करते हुए शरीर छोड़ने वाला मनुष्य उसी को प्राप्त होता है।[1] जो सर्वज्ञ, पुराण, सबका शासक, सूक्ष्म से सूक्ष्म, सबको धारण करने वाला, अचिन्त्यरूप, अज्ञान से अत्यंत परे और सूर्य की तरह प्रकाशस्वरूप है, उसका चिन्तन करते हुए अचल एवं मन योगबल के द्वारा प्राणों को भृकुटी के मध्य में लगाकर शरीर छोड़ने वाला मनुष्य उसी परम दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।[2] जिसके अंतर्गत सब प्राणी हैं और जब सबमें व्याप्त है, उस परम पुरुष को अनन्यभक्ति से प्राप्त करना चाहिए।[3] जिससे संपूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्मों के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है[4] आदि-आदि। 2. निर्गुण-निराकार - जिसको वेदवेत्ता- लोग अक्षर कहते हैं, वीतराग यतिलोग जिसमें प्रवेश करते हैं और जिसको प्राप्त करने की इच्छा से ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं कहूँगा।[5] जो अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वव्यापी, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव तत्त्व की उपासना करते हैं[6] आदि-आदि। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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