गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
42. गीता का योग
‘योग’ नाम मिलने का है। जो दो सजातीय तत्त्व मिल जाते हैं, तब उसका नाम ‘योग’ हो जाता है। आयुर्वेद में दो औषधियों के परस्पर मिलने को ‘योग’ कहा है। व्याकरण में शब्दों की संधि को ‘योग’ (प्रयोग) कहा है। पातञ्जल योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को ‘योग’ कहा है। इस तरह ‘योग’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, पर गीता का ‘योग’ विलक्षण है। गीता में ‘योग’ शब्द के बड़े विचित्र-विचित्र अर्थ हैं। उनके हम तीन विभाग कर सकते हैं-
पातंजल योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को ‘योग’ नाम से कहा गया है- ‘योगश्चित्तवृत्ति’[4] तात्पर्य है कि गीता चित्तवृत्तियों से सर्वथा संबंध विच्छेद पूर्वक स्वतः सिद्ध सम-स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति को ‘योग’ कहती है। उस समता में स्थित (नित्ययोग) होने पर फिर कभी उससे वियोग नहीं होता, कभी वृत्ति रूपता नहीं होती, कभी व्युत्थान नहीं होता। वृत्तियों का निरोध होने पर तो ‘निर्विकल्प अवस्था’ होती है, पर समता में स्थित होने पर ‘निर्विकल्प बोध’ होता है। ‘निर्विकल्प बोध’ अवस्थातीत और संपूर्ण अवस्थाओं का प्रकाशक तथा संपूर्ण योगों का फल है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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