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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
37. गीता में विविध आज्ञाएँ
गीता में दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को विशेषता से युद्ध करने के लिए और सेना नायकों को भीष्म जी की रक्षा करने के लिए आज्ञा दी है, अर्जुन ने रथी के नाते सारथिरूप भगवान् को आज्ञा दी है, ब्रह्मा जी ने सर्ग के आदि में देवता और मनुष्य को अपने-अपने कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ का पालन करने के लिए आज्ञा दी है, भगवान् ने ज्ञानियों को कर्तव्य कर्म की उपेक्षा न करने की आज्ञा दी है और अर्जुन युद्ध करने से इन्कार कर रहे थे तो भगवान् ने अर्जुन को आश्वासन पूर्वक बहुत बार आज्ञाएँ दी हैं। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से पाण्डवों की बड़ी भारी सेना को देखने के लिए कहा- ‘पश्य’[1] तात्पर्य है कि आप इस सेना को विशेषता से देखिए। आप इसको मामूली समझकर इसकी उपेक्षा न करें, यह युद्ध का मामला है। इस सेना में बड़े-बड़े शूरवीर हैं। अतः आप सावधान रहें। पाण्डवों की सेना तो सामने ही खड़ी थी अतः दुर्योधन ने ‘पश्य’ कहा। पर अपनी सेना द्रोणाचार्य की पीठ के पीछे थी; अतः दुर्योधन ‘निबोध’[2] क्रिया का प्रयोग करके कहता है कि आप हमारे सेना को भी समझ लें, यादमात्र कर लें कि हमारी सेना भी बल आदि में कोई कम नहीं है। फिर दुर्योधन अपने-अपने स्थान पर स्थित संपूर्ण सेना नायकों को पितामह भीष्म की रक्षा करने के लिए आज्ञा देता है- ‘अभिरक्षन्तु’[3] कारण कि भीष्म जी की रक्षा होने से हम सबकी रक्षा हो जाएगी और उनके सेनापति होने से हमारी विजय भी हो जाएगी। इस प्रकार दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को ‘पश्य’ और ‘निबोध’ पद से जो आज्ञाएं दी हैं, वे आदरपूर्वक ही दी है क्योंकि दुर्योधन स्वयं राजा होते हुए भी द्रोणाचार्य के पास जाता है और ‘आचार्य’ संबोधन देकर आदरपूर्वक आज्ञा देता है। अतः इन आज्ञाओं में भी एक प्रकार की प्रार्थना ही है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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