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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
14. गीता में सनातनधर्म
सनातन धर्म में जितने साधन कहे गये हैं, नियम कहे गये हैं, वे भी सभी सनातन हैं, अनादिकाल से चलते आ रहे हैं। जैसे भगवान् ने कर्मयोग को अव्यय कहा है- ‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्’[1] तथा शुक्ल और कृष्ण गतियों- (मार्गो-) को भी सनातन कहा है- ‘शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते’।[2] गीता ने परमात्मा को भी सनातन कहा है- ‘सनातनस्वत्वम्’,[3] जीवात्मा को भी सनातन कहा है- ‘जीवभूतः सनातनः,[4] धर्म को भी सनातन कहा है- ‘शाश्वतस्य च धर्मस्य’,[5] परमात्मा के पद को भी सनातन कहा है- ‘शाश्वतं पदमव्ययम्’।[6] तात्पर्य है कि सनातन धर्म में सभी चीजें सनातन हैं, अनादिकाल से हैं। सभी धर्मों में और उनके नियमों में एकता कभी नहीं हो सकती, उनमें ऊपर से भिन्न रहेगी ही। परंतु उनके द्वारा प्राप्त किये जाने वाले तत्त्व में कभी भिन्नता नहीं हो सकती।
जब तक साधन करने वालों का संसार के साथ संबंध रहता है, तब तक मतभेद, वाद-विवाद रहता है। परंतु तत्त्व की प्राप्ति होने पर तत्त्वभेद नहीं रहता। जो मतवादी केवल अपनी टोली बनाने में ही लगे रहते हैं, उनमें तत्त्व की सच्ची जिज्ञासा नहीं होती और टोली बनाने से उनकी कोई महत्ता बढ़ती भी नहीं। टोली बनाने वाले व्यक्ति सभी धर्मों में हैं। वे धर्म के नाम पर अपने व्यक्तित्व की ही पूजा करते और करवाते हैं। परंतु जिनमें तत्त्व की सच्ची जिज्ञासा होती है, वे टोली नहीं बनाते। वे तो तत्त्व की खोज करते हैं। गीता ने भी टोलियों को मुख्यता नहीं दी है, प्रत्युत जीव के कल्याण को मुख्यता दी है। गीता के अनुसार किसी भी धर्म पर विश्वास करने वाला व्यक्ति निष्कामभाव पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करके अपना कल्याण कर सकता है। गीता सनातन धर्म को आदर देते हुए भी किसी धर्म का आग्रह नहीं रखती और किसी धर्म का विरोध भी नहीं करती। अत- गीता सार्वभौम ग्रंथ है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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