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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
1. गीता के प्रत्येक अध्याय का तात्पर्य
तेरहवाँ अध्यायसंसार में एक परमात्मतत्त्व ही जानने योग्य है। उसको जरूर जान लेना चाहिए। उसको तत्त्व से जानने पर जानने वाले की परमात्मतत्त्व के साथ अभिन्नता हो जाती है। जिस परमात्मा को जानने से अमरता की प्राप्ति हो जाती है, उस परमात्मा के हाथ, पैर, सिर, नेत्र, कान सब जगह हैं। वह संपूर्ण इंद्रियों से रहित होने पर भी संपूर्ण विषयों को प्रकाशित करता है, संपूर्ण गुणों से रहित होने पर भी संपूर्ण गुणों का भोक्ता है, और आसक्ति रहित होने पर भी सबका पालन-पोषण करता है। वह संपूर्ण प्राणियों के बाहर भी है और भीतर भी है तथा चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वही है। संपूर्ण प्राणियों में विभक्त रहता हुआ भी वह विभागरहित है। वह संपूर्ण ज्ञानों का प्रकाशक है। वह संपूर्ण विषम प्राणियों में सम रहता है, गतिशील प्राणियों में गतिरहित रहता है, नष्ट होते हुए प्राणियों में अविनाशी रहता है। इस तरह परमात्मा को यथार्थ जान लेने पर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। चौदहवाँ अध्यायसंपूर्ण संसार त्रिगुणात्मक है। इससे अतीत होने के लिए गुणों को और उनकी वृत्तियों को जरूर जानना चाहिए। प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण शरीर-संसार में आसक्ति, ममता आदि करके जीवात्मा को बाँध देते हैं। सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से, रजोगुण कर्मों की आसक्ति से और तमोगुण प्रमाद, आलस्य एवं निद्रा से मनुष्य को बंधन में डालता है। रजोगुण और तमोगुण को दबाकर जब सत्त्वगुण बढ़ता है, तब अंतःकरण में रज-तम के विरुद्ध प्रकाश हो जाता है। सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर जब रजोगुण बढ़ता है, तब अंतःकरण में लोभ; क्रियाशील आदि सत्त्व तम के विरुद्ध वृत्तियाँ बढ़ जाती है। सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर जब तमोगुण बढ़ता है, तब अंतःकरण में अविवेक, कर्म करने में अरुचि, प्रमाद, मोह आदि सत्त्व रज के विरुद्ध वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं। इन गुणों की वृत्तियों के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी क्रमशः ऊँचे, मध्य और नीचे के लोकों में जाता है। परंतु जो इन गुणों के सिवाय अन्य को कर्ता नहीं मानता अर्थात् संपूर्ण क्रियाएँ गुणों में ही हो रही है, स्वयं में नहीं- ऐसा अनुभव करता है, वह गुणों से अतीत होकर भगवद्भाव को प्राप्त हो जाता है। अनन्य भक्ति से भी मनुष्य गुणों से अतीत हो जाता है। |
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