गीता चिन्तन- हनुमान प्रसाद पोद्दार
मातर्गीतेदेवि! हमारा ही अपराध है। हमने तेरे स्वरूप को यथार्थ नहीं पहचाना। तेरी स्नेह-पूरित मुखच्छवि को श्रद्धा समन्वित तर्कशून्य सरल दृष्टि से नहीं देखा। इसी से भूल-भुलैया में पड़े हैं, इसी से तेरे अगाध आनन्दाम्बुधि में मतवाले की तरह कूदकर जोर से डुबकी लगाने में प्राण हिचकिचाते हैं; इसी से तेरे नित्य प्रज्वलित प्रचण्ड ज्ञानानल में अविद्या-राशि को फेंककर फूँक डालने में संकोच होता है। इसी से घर-घर में तेरी प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने पर भी विधि संगत पूजा नहीं की जाती, इसी से निराधार अबोध मातृ परायण शिशु की भाँति तेरे चरण-प्रान्त में हम अपने को लुटा नहीं देते, इसी से तेरी प्रमत्त कारी प्रेम मदिरा का पान कर तेरे मोहन-मन्त्र से मुग्ध होकर दिव्यानन्द के दीवाने नहीं बन रहे हैं। अरे! इसी से आज अमूल्य रत्न-राशि के हाथ में रहते भी हम शान्ति-धन से शून्य दीन-हीन राह के भिखारी बने दारुण दाह से दग्ध हो रहे हैं। विश्व-ज्ञान-प्रदायिनी अनन्त शक्ति माँ! आज हम सूर्य को दीपक की क्षुद्र ज्योति से प्रकाशित करने की बाल कोचित हास्यास्पद चेष्टा के सदृश तेरे विश्वव्यापी प्रकाश के किसी क्षुद्राति क्षुद्र ज्योतिः कण से प्रकाशित मनुष्य-विशेषों के विनाशी उद्गारों द्वारा तेरी महिमा बढ़ाना चाहते हैं। तेरे अनन्त ज्ञान को अपने सीमाबद्ध स्वल्प ज्ञान और मनः-प्रसूत अनित्य मत के रूप में परिणत कर प्रसिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं। तेरी विश्वातीत और विश्व व्याप्त अद्भुत अनन्त राशि को संकुचित कर पर-मत-असहिष्णुता के कारण हम अपने सिद्धान्त की पुष्टि में ही उसका प्रयोग करना चाहते हैं। तुझे सर्वशास्त्रमयी कहकर ही तेरा गौरव बढ़ाना चाहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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