गीता चिन्तन- हनुमान प्रसाद पोद्दार
मातर्गीतेकुछ दिनों के लिये प्राप्त कल्पित देश-जाति-नाम-रूप के अभिमान में मत्त होकर सारे विश्व से इसी लिये अपने को भिन्न और श्रेष्ठ समझकर लोक-समुदाय में और भी मानास्पद बनने के निमित्त तुझे केवल अपने ही घर की वस्तु बतलाकर, तुझ असीम को ससीम बनाकर अपने गौरव की वृद्धि के लिये किसी भी तरह श्रद्धा-अश्रद्धा से तेरी प्रतिमा घर-घर पहुँचाना चाहते हैं। माता! यह हमारे बालोचित कार्य हैं। हम बालक हैं, इसी से ऐसा करते हैं एवं दयामयी! इसी से हमारी इन चेष्टाओं को देख-सुनकर भी तू नाराज नहीं होती। तू समझती है कि ये अबोध हैं, इसीलिये मेरे वास्तविक स्वरूप को न पहचान कर-मुझ नित्यानन्दमयी स्नेहार्द्रहृदया जननी की शरण न लेकर मुझ मधुरातिमधुर शान्ति-सुधा-सागर के अगाध अन्त स्तल में निमग्न न होकर केवल बाह्य लहरियों की ओर निहार रहे हैं। इसी से तू अपनी इन लहरियों की मधुर तान सुना-सुनाकर हमारे मन को मोहती और अपनी सुखमयी गोद में बैठाकर अमृत स्तन्य पान के लिये आवाहन करती है। माता! वास्तव में तेरी इन लहरियों का दृश्य बड़ा मनोहर है, तेरी यह तान बड़ी श्रुति-मधुर है, इसी से आज तेरे तट पर विश्व के सभी प्राणी दौड़-दौड़कर आ रहे हैं, यद्यपि अभी सब में कूद पड़ने की श्रद्धा और साहस नहीं है, पर तेरी मुधर लहरी-ध्वनि हृदयों में एक अद्भुत मतवालापन पैदा कर रही है, इसी लिये कुछ लोगों में तेरे प्रति पवित्र आकर्षण देखने में आ रहा है। वह देखो कुछ तो कूद ही गये, गहरे जल में निमग्न हो गये और भी कूद रहे हैं, कूदेंगे। भाई विश्वनिवासियों! दयामयी ज्ञानदायिनी जननी का मधुर आवाहन सुना और तुरंत आकर सदा के लिये उसकी सुखद क्रोड में बैठकर निर्भय और निश्चिन्त हो जाओ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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