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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 25
यज्ञ और गीता में उसका नया उच्च अर्थ
यह कोई साधारण वस्तु नहीं। वह तो प्रजाओं के जीवन में पिरोया हुआ सूत्र है। क्या कोई यज्ञ से भाग सकता है? विश्व निर्माता ने यज्ञ से ही प्रजाओं को बनाया है, अतएव प्रत्येक जीवन यज्ञ का ही रूप है। प्रजापति ने स्वयं अपनी आहुति डाली तो यह विश्वरूपी सर्वहुत यज्ञ चला और चल रहा है। मनुष्य भी जिस काम में अपनी सर्वाहुति नहीं देता वह काम यज्ञ का रूप नहीं ग्रहण कर पाता। यज्ञ की यह विराट व्याख्या ठेठ वैदिक थी। वहाँ सैकड़ों प्रकार से विश्व की रचना को, जिसमें मानव का जन्म भी शामिल है, यज्ञ कहा गया है। वह विश्वकर्मा प्रजापति समस्त भुवनों की आहुति इस यज्ञ में डाल रहा है और इसके ऋषि होता और पिता के रूप में इसे अपना आर्शीवाद दे रहा है। वह इससे अपने लिए कुछ नहीं चाहता, केवल यज्ञ की पूर्ति चाहता है। कर्मयोग-शास्त्र की ऐसी उदात्त व्याख्या गीता से पूर्व किसी अन्य शास्त्र में देखने-सुनने में नहीं आती। वेदों में इस विश्व यज्ञ को प्रजापति का ‘कामप्र’ यज्ञ कहा गया है, अर्थात जो ईश्वर की इच्छा है, वही इस विश्व यज्ञ में मिली हुई है। दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। यज्ञ से अतिरिक्त और किसी वस्तु के लिए और किसी फल के लिए इच्छा व्याप्त नहीं होती। यज्ञ स्वयं अपने में पूर्ण है, ऐसे ही यज्ञात्मक कर्म भी। ‘एष वः अस्तु इष्टकामधुक्’, इन शब्दों का संकेत भी इसी ओर है। विश्व की शक्तियों के साथ, जिन्हें देव कहा गया है, अपने आप को जोड़ना यज्ञ की व्याख्या वेद और गीता दोनों को मान्य है। यज्ञ तो जीवन की चक्रात्मक प्रवृत्ति है। इसके द्वारा व्यष्टि और समष्टि दोनों का समन्वय किया जाता है। जो व्यक्ति केवल अपने लिए खाता-कमाता है, उसे स्पष्ट शब्दों में चोर कहा गया है, क्योंकि उस मनुष्य का जीवन यज्ञात्मक नहीं है। समाज और विश्व के एक अंग के रूप में जीवित रहना यज्ञ है। प्रश्न यह है कि कर्मयोग-शास्त्र की मीमांसा की भूमिका के रूप में भगवान ने यज्ञ की यह नई व्याख्या क्यों आवश्यक समझी? इसका उत्तर यह है कि उस युग में यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म माना जाता था। कर्म और यज्ञ दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गये थे। “यज्ञः कर्मसमुद्भवः”[1] यह परिभाषा गीता ने स्वयं दी है। कर्मयोग का सच्चा अर्थ बताने के लिए यह आवश्यक था कि स्वर्गादि की अनेक कामनाओं से यज्ञ करने के पक्षपाती एवं कर्म फल को ही सब कुछ मानने वाले दृष्टि कोण से लोगों को मुक्त किया जाय। इसे ही पहले कुछ उपहासात्मक शब्दों में वेदवाद कहा जा चुका है। कृष्ण ने यज्ञ की जो नई व्याख्या वहाँ दी है, उससे तो समस्त जीवन ही प्रजापति के यज्ञ से उत्पन्न हुआ है। हम सब उस यज्ञ के अंग हैं। जैसे कर्म आवश्यक है, वैसे यज्ञ भी। आगे और भी स्पष्ट शब्दों में कहेंगे कि ब्रह्मा के विश्वरूपी विराट मुख में अनेक प्रकार के यज्ञ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भरे हुए हैं। उनमें भी द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ अधिक महत्त्वपूर्ण है। ज्ञान-यज्ञ से तात्पर्य पोथी पत्रा बांच लेना नहीं, किन्तु उस समत्व बुद्धि की उपलब्धि है, जो सच्चे कर्म योग की आत्मा है। इसके अनन्तर बाह्य कर्म प्रवृत्ति और आत्मज्ञान-विषयक प्रवृत्ति का समन्वय बताते हुए कहा गया है कि यदि आत्मा के लक्ष्य से जीवन में प्रवृत्त हुआ जाय तभी कर्म और अकर्म दोनों में समत्व बुद्धि की प्राप्ति संभव है। मुंक्त संग होकर किया हुआ कर्म, कर्म न करने के ही तुल्य होता है। कर्म-फलों की लालसा का परित्याग करने के लिए आत्म तृप्त होना आवश्यक है। एक प्रकार से आत्माराम और आत्म तृप्ति वाली युक्ति का स्वारस्य कर्म योग के समर्थन में ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3।14
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