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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 25
आत्मज्ञान और कर्म दोनों की साधना
आत्मा और कर्म दोनों को कैसे साधा जाय, इसका दृष्टान्त राजर्षि जनक के जीवन से दिया गया है, जो शरीर के सब व्यवहारों को साधते हुए भी पूर्ण वैराग्य में मन को लीन रखते थे। ज्ञान और कर्म के मेल से जनक का जीवन बना था। ब्राह्मण तो ब्रह्मज्ञानी प्रसिद्ध ही थे, किन्तु क्षत्रियों ने भी ब्राह्मणों की परम्परा को जिस प्रकार पूरी तरह आत्मसात करके विकसित और लोकोपयोगी बनाया, वह जनक आदि राजर्षियों के जीवन से प्रकट होता है। मनु, इक्ष्वाकु, अम्बरीष, रघु, राम आदि चक्रवर्ती कर्म योग के आदर्श थे। उनके उदात्त चरित्र दृष्टान्त रूप से लोक में फैले हुए थे। इसी कोटि में उपनिषदों के अश्वपति कैकेय और प्रवहण जैवलि भी आते हैं। ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य के मित्र और शिष्य विदेह जनक का चरित्र भी जैसा उपनिषदों में है, कर्मयोग के उक्त आदेश की ओर ही संकेत करता है। “मिथिला राजधानी जल जाय तो मैं अपनी हानि नहीं समझता, अथवा मेरा दाहिना अंग जल जाए तो बाएं अंग में व्यथा नहीं होती,” इस प्रकार की दृढ़ चित्त वृत्ति ही बुद्धि योग है, जिसे गीता में समत्व योग कहा गया है। अतएव न केवल ज्ञान और कर्म के उत्तम आदर्श की प्राप्ति के लिए कर्म आवश्यक है, किन्तु लोक संग्रह की दृष्टि से भी कर्म ही एकमात्र मार्ग है। “लोक संग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि”।[1] लोक की यह रीति है कि महाजन या बड़े आदमी जैसा करते हैं, छोटे भी उसी मार्ग पर चलते हैं। इस दृष्टान्त को भगवान स्वयं अपने ही ऊपर डालकर बात को और ऊंचे धरातल पर उठा ले जाते हैं- “हे अर्जुन, मैं ईश्वर हूं, मुझे कुछ करना या पाना शेष नहीं है, फिर भी मैंने कर्म का मार्ग अपनाया है, जिससे लोक की रीति न बिगड़ने पावे।।"[2] मूर्ख और पण्डित दोनों को ही कर्म करना है। एक कर्म फल के फांसे में बंधा रहता है, दूसरा उससे मुक्त रहता है। जीवन की इस युक्ति को जब चाहे, देखा जा सकता है। चतुर व्यक्ति को इतना और चाहिए कि जो कर्म में आसक्त भी है, उन सामान्य व्यक्तियों को ज्ञान की ऊंची बातें बघार कर दुविधा में न डालें। कर्मों में असंग भाव की प्राप्ति के लिए अहंकार का हटना आवश्यक है। यह तभी होगा, जब मनुष्य यह समझे कि कर्ता मैं नहीं हूँ। सब कर्म प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्त्व, रज, तम नामक तीन गुणों के फल हैं। प्रकृति अर्थात जगत का यही स्वभाव है। मनुष्य योग दे तो भी जगत चलेगा, और योग न दे तो भी वह रुकेगा नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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