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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 25
कर्म के पक्ष में युक्तियां
पहली बात तो यह है कि जो कर्म न करने की बात कहे, उससे पूछना चाहिए कि क्या कर्म से मुंह मोड़कर पल भर के लिए भी कोई तुम जीवित रह सकते हो? इसका उत्तर एकदम स्पष्ट और सुनिश्चित है।[1] कर्म छोड़ बैठने से ही कोई निष्कर्म नहीं बन जाता और संन्यास ले लेने से ही सिद्धि मिल जाती हो, ऐसा भी हम नहीं देखते। दूसरे हरेक से बलपूर्वक कर्म कराने वाला तो प्रकृति का पहिया है। वह तीन गुणों की शक्ति से घूम रहा है। ऐसा कोई नहीं, जो जन्म लेकर उस पहिए पर न चढ़ा हो। यदि कोई यह समझता है कि मैंने उस पहिये को जीत लिया तो वह ढोंगी है। यह क्या बात हुई कि ऊपर से तो कर्मेन्द्रियों पर कन्टोप चढ़ा दिया, पर मन से विषयों को टटोलते रहे। इसके लिए स्वयं अपनी जांच करने से सच्चाई खुल जाती है। भला मानुष वह है जो और चाहे कुछ करे या न करे, पाखंड न करे, जो जैसा है वह अपने को वैसा ही प्रकट करे। मिथ्याचार जीवन का घोर शत्रु है। उससे मनुष्य का सारा व्यक्तित्व धुआं बन जाता है। समस्या इन्द्रियों की बाहरी रोकथाम की नहीं, समस्या तो मन के सुधार की है। इन्द्रियों को मन से रोको और चाहे जितना कर्म करते रहो, तभी सच्चा असक्त बना जा सकेगा, यही कर्म योग की विशेषता है। गीताकार की कर्म के पक्ष में तीसरी युक्ति नितान्त भौतिक और स्थूल है- “शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।"[2] प्रतिदिन का रहन-सहन और जीविका भी कर्म के बिना नहीं चल सकती। इससे अधिक दृढ़ उक्ति कर्म के पक्ष में आज भी देना संभव नहीं है। या तो मनुष्य स्वयं कर्म करे, या दूसरे के पसीने की कमाई से जीवित रहे, इन दोनों मार्गों में कोई समझौता है ही नहीं। जब कर्म के बिना कोई सांस भी नहीं ले सकता तो दसों दिशाओं में चलने के लिए केवल कर्म का ही मार्ग रह जाता है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ऐसे कर्म में तो लोग रात-दिन लगे हैं। फिर नई बात आप क्या चाहते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि केवल कर्म करना पर्याप्त नहीं, यद्यपि कुछ न करने से उतना भी अच्छा है, पर सच्चा कर्म वह है, जो यज्ञ की भावना से किया जाय। उसके अनुसार सारा जीवन ही यज्ञ बन जाता है। यज्ञ वह है, जिसमें कुछ त्याग किया जाय, कर्मरूपी यज्ञ में कर्म के फल का त्याग ही उसे पूर्ण करता है। कर्म को छोड़ बैठने से तो उस यज्ञ का स्वरूप ही बिगड़ जाता है। यज्ञार्थ कर्म कहें या निष्काम कर्म, एक ही बात है। कर्म फल के त्याग से ही कर्म का यज्ञीय रूप बनता है, फिर ऐसा भी नहीं कहा गया कि जब कर्म का फल मिलने लगेगा तो उसे न लेने का ही आग्रह बना रहेगा। सच तो यह है कि फल की आसक्ति का त्याग ही इस सारी युक्ति का सार है। अतएव उत्तम कर्म वह होगा, जिसमें फल की सिद्धि और असिद्धि का प्रश्न समभाव में रखा जाय। और दूसरी ओर कर्म करने का जितना कौशल है, उसकी पूरी चतुरता से काम किया जाय। यह भारी बात है और इसका अर्थ यह है कि मनुष्य में मन, प्राण और शरीर की जितनी शक्ति है, उसकी भरपूर मात्रा कर्म में उड़ेल देनी चाहिए। इस युक्ति से बढ़कर कर्म की और युक्ति समझ में नहीं आती। यही कर्मयोग-शास्त्र की भित्ति है। यज्ञार्थ कर्म करो या मुक्त संग होकर कर्म करो, यही इसका सार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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