विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 24
मीमांसकों का कर्म वाद
यहाँ गीताकार ने उन कामनाओं का वर्णन किया है, जिनके कारण लोगों में भाँति-भाँति के कर्म फलों के लिए कर्म करने की इच्छा होती है। यह दृष्टि कोण विशेषतः उस युग के यज्ञवादी मीमांसकों का था। पुत्रकाम्या इष्टि से सन्तान होगी, मित्रविन्दा इष्टि से मित्र-सुख मिलेगा, कारीरी इष्टि से अच्छी वृष्टि होगी। इस प्रकार के छोटे-बड़े सैकड़ों यज्ञ और उनके उतने ही फलों के भुलावे का एक जाल ही लोक में फैल गया था। बड़े यज्ञों की कौन कहे, छुटभइये देवताओं की पूजा की भी भरमार हो गई थी। इसे ही यहाँ वेदवाद अर्थात यज्ञवाद की फूली हुई वाणी कहा है। भोग और ऐश्वर्य, धन और पद, यही इस दृष्टि के पल्ले रह गया था। स्वर्ग और नरक के बहुत से पचड़े उठ खड़े हुए थे। ऐसा कहने वाले मानने लगे थे कि इन थोथे कर्म-काण्ड के सिवा और कुछ है ही नहीं।[1] जहाँ इस तरह का मत चल जाय वहाँ मन की शान्ति और एकाग्रता नहीं हो सकती। कृष्ण का कटाक्ष इस तरह कर्म-काण्ड से भरे हुए (क्रिया विशेष बहुल) वेदवाद पर है। वेद का ब्रह्मवादवस्तुतः वेद का सिद्धान्त तो ब्रह्मवाद है। ‘ब्रह्म तद्वनम ब्रह्म उ वृक्ष आस यतो द्यावा पृथ्वी निष्टतक्षुः। ब्रह्मध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन’ इत्यादि अनेक स्थानों में प्रतिपादित महान ब्रह्म सिद्धान्त ही वेदों का मूल अभिप्राय था। उसकी तो यहाँ भरपूर प्रशंसा ही की गई है। ब्रह्म-विज्ञानी व्यक्ति को ऐसा अनुभव होता है कि उसके चारों ओर ब्रह्मानन्द का समुद्र उमड़ रहा है। जब इस प्रकार का विज्ञान प्रत्यक्ष हो जाता है तब मनुष्य को स्थूल शब्दों में रुचि नहीं रहती, उसका मन अनन्त अर्थ के साथ जुड़ जाता है। अर्थ अमृत है, शब्द मर्त्य है। इसलिए ब्रह्म-विज्ञान प्राप्त कर लेने पर मन शब्दों की सीमा से बहुत ऊपर उठ जाता है। जिस समय चारों ओर से जल की बहिया आई हो, उस समय कुंए की सीमित जल की आवश्यकता नहीं रहती। ऐसी ही स्थिति उपनिषदों और वेदों में प्रतिपादित परमपुरुष के साक्षात्कार के समय हो जाती है। यही गीताकार का आशय है। सब वेदों को जानने योग्य जो ब्रह्म-तत्त्व है, वह प्रकृति से पृथक अध्यात्म पुरुष है। सत्त्व, रज, तम, इन तीन गुणों तक प्रकृति की सीमा है और इन्हीं गुणों तक वैदिक कर्मकाण्ड का फल है। ब्रह्म-विज्ञान या अध्यात्म, ज्ञान उससे ऊपर है। इसकी प्रशंसा तो गीता में अनेक प्रकार से की गई है। वस्तुतः गीता को ब्रह्मविद्या कहा गया है और तत्त्वतः वेद विद्या ब्रह्म विद्या ही है। यज्ञीय कर्म-काण्ड तक जो वेदों को इतिश्री कहते हैं, वे यथार्थ को नहीं जानते। उपनिषदों में वेदों का यही अर्थ साक्षात भर हुआ है। उपनिषद-रूपी गायों का अमृत रूपी दूध ही गीता का ज्ञान है। केवल ज्ञान अमृत है और केवल कर्म पानी। पानी और अमृत के मिलने से दूध बनता है। वही मानव का पोषक आहार बन सकता है। ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय ही गीता का कर्म योग है। जब भगवान उस कर्म योग की व्याख्या का आरम्भ करने लगे तो यह आवश्यक हुआ कि कर्म काण्ड की उलझनों से भरे हुए कर्मवाद का खण्डन किया जाय और कर्म के विषय में प्रज्ञावादी मानव की जो स्वच्छ दृष्टि होनी चाहिए, उसकी व्याख्या की जाय। ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि, जिजीविषेच्छतं समाः’ इस मन्त्र का यह उद्देश्य नहीं कि कर्म काण्ड की जटिलता में पड़े हुए जीवन के सौ वर्ष बिताओ, बल्कि इसका आशय यह था कि आत्मा के दिव्यगुणों की और शरीर के गुणों की जितनी संभावनाएं हैं, उन्हें कर्मों के द्वारा प्राप्त करते हुए दीर्घ आयुष्य का भोग करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नान्य दस्तीतिवादिनः 2।42
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज