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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 24
इसके अनन्तर भगवान उस कर्मयोग-शास्त्र की व्याख्या करने लगते हैं, जिसे प्रज्ञावादी दार्शनिकों ने वेद और जीवन दोनों के तत्त्वों का निचोड़ लेकर सर्वथा नई दृष्टि से प्रतिपादित किया था। कर्मयोग-शास्त्र का निचोड़ गीता के एक श्लोक में आ गया है- (कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफल हेतुर्भूर्माते संगोऽस्त्वकर्मणि 2।47)। कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्मफल पर नहीं। अतएव तुम कर्म के हेतु बन सकते हो, कर्म फल के हेतु नहीं बन सकते। तुम्हारी शक्ति की सीमा जिस कर्म तक है, उसे कभी छोड़ कर बैठे रहने का भाव मन में मत लाओ। ऐसा करने से कर्म और कर्मफल दोनों तुम्हारे हाथ से निकल जायेंगे। कृष्ण के ये वाक्य कर्मयोग-शास्त्र के मूल सूत्र हैं। इन्हीं की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है और कितनी ही अन्य युक्तियों से इसी तत्त्व का समर्थन किया गया है। कर्म योग का मार्ग शरीर-यन्त्र से केवल बाहरी कर्म करना नहीं है। सच्चे कर्मयोग के लिए मन और बुद्धि का संस्कार आवश्यक है। इसके लिए कृष्ण ने योग की दो परिभाषाएं बताईं, “समत्वं योग उच्यते”[1] “योगः कर्मसु-कौशलम्”।[2] सच कहा जाय तो कर्म की अपेक्षा बुद्धि का सुधार अधिक महत्त्वपूर्ण है। कर्म में तो सभी लिपटे हुए हैं, किन्तु कर्म योग वाली बुद्धि के प्राप्त करने से ही कर्म का बन्धन नहीं लगता। सिद्धि और असिद्धि, दोनों में एक समान रहने की जो मानसिक साधना है उसी का नाम समत्व योग है। यह बुद्धि योग या अनासक्ति योग बहुत ऊंची स्थिति है। इसकी तुलना में केवल कर्म बहुत नीचे की वस्तु है। अनासक्त भाव से जो कर्म करना सीख लेता है, वह इस पचड़े में नहीं पड़ता कि क्या करें, क्या न करें। उसके लिए तो प्राप्त कर्तव्य को अच्छी तरह से करना, यही कर्म योग का स्वरूप है। बुद्धि में समत्व-भाव और कर्म करने की कुशल युक्ति, ये दोनों कर्म योग-शास्त्र की दो आंखें हैं। जो चतुर हैं वे कर्म फल से अपना मन हटाये रहते हैं और इसी कारण कर्म करते हुए भी कर्मों में लिप्त न होकर मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। ज्ञात होता है कि उस युग के शास्त्रों में सांख्यों के ज्ञान मार्ग का और कर्म-संन्यास का एवं मीमांसकों तथा इतर शास्त्रों के कर्म मार्ग का बहुत ऊहापोह किया गया था। उसे यहाँ मोह का दलदल कहा है। उन श्रुतियों के दोहरे तर्कों से यह निर्णय करना कठिन था कि कौन-सा मार्ग ठीक है। कृष्ण के ही वाक्यों से ऐसा जान पड़ता है कि सांख्य के निवृत्ति मार्ग की शान्त और समत्व स्थिति और कर्मवादियों के पुरुषार्थ, इन दोनों को लेकर वे एक नया सिद्धान्त सिखाना चाहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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