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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 31-53
महाभारत के इसी प्रकरण से ज्ञात होता है कि यायावर ऋषियों का विशेष आग्रह कुल की संस्कृति, कुल की अभिवृद्धि और कुल की स्थापना पर था।[1] शौनक भी कुलपति थे, जिन्होंने नैमिषारण्य के जंगल में अपने कुलों की एक बस्ती बना रखी थी। बहुत सम्भव है कि इसी कारण ऋषियों के कुलवर्द्धक आस्तीक का चरित कुलपति शौनक ने विशेष रूप से सुनने की इच्छा प्रकट की। इसके उपरान्त कथाकार की कल्पना के अनुसार व्यासजी स्वयं जनमेजय के सर्प-सत्र में पधारते हैं, और जनमेजय उनसे अपने प्रपितामह कुरु और पाण्डवों के चरित सुनाने की प्रार्थना करते हैं, क्योंकि व्यासजी उन घटनाओं के स्वयं द्रष्टा थे; किन्तु एक ही श्लोक कह कर पास बैठे हुए अपने शिष्य वैशम्पायन को कथा सुनाने की आज्ञा देकर व्यासजी वहाँ से चले गए, “कौरवों और पाण्डवों का पूर्व काल में जैसा युद्ध हुआ और तुमने मुझसे सुना है, सब सुनाओ।” अपने गुरु की यह आज्ञा शिरोधार्य कर वैशम्पायन ने सब पुरातन इतिहास राजा जनमेजय, उनकी सभा के सदस्यों और सब क्षत्रियों से कहना आरम्भ किया। 4. शकुन्तलोपाख्यानमहाभारत के वर्तमान रूप में जो अठारह पर्व हैं, उनमें 1948 अध्याय हैं। उनके लगभग आधे अर्थात एक सहस्र अध्यायों में कुरु-पाण्डवों के पारस्परिक भेद और युद्ध की कथा है। राज्य के लिए उन महावीर क्षत्रियों का एक-दूसरे के हाथों जो शोचनीय विनाश हुआ, उसके रूखे निष्करुण साहित्यिक बोझे को इस देश की अध्यात्म भावना किस प्रकार सह पाती, यदि मनीषी वेदव्यास ने नीति और धर्म के अनेक प्रसंग, दर्शन और अध्यात्म के तेजस्वी प्रकरण, देवता और ऋषियों के चरित्र, पुराण राजर्षियों के वंशानुचरित, लौकिक वैदिक उपाख्यान, भुवनकोश, तीर्थ-यात्रा, इतिहास और पुराणों की अनेकविध लोकव्यापी सामग्री से उसे इस प्रकार संवारकर धर्म-संहिता का रूप प्रदान न कर दिया होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदि. 41।21-22
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