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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 31-53
स्वयं शौनक आस्तीक-चरित्र सुनने के बाद कहते हैं, “हे सूतजी, यहाँ तक तो तुमने मेरी प्रार्थना पर भृगुवंश के आख्यान से आरम्भ करके इतनी कथा कही। अब जो व्यासजी की कही हुए कथा है, उसे सुनाओ।” इसके उत्तर में सूतजी ने कहा, ”व्यासजी ने जो महत भारत-आख्यान कहा था, जो उन पुण्यात्मा महर्षि के मन-रूपी समुद्र के मन्थन से उत्पन्न हुआ था, उसे मैं तुमसे कहता हूँ।” आस्तीक के चरित में यायावर मुनियों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। ज्ञात होता है कि पूर्व काल में यायावर नामक ऋषि कठोर व्रतों का आचरण करते हुए गृहस्थाश्रम और सन्तानोत्पत्ति से पराङमुख होकर विचरते थेः
इन्हीं के कुल में जरत्कारु हुए, जिन्होंने कुल की महिमा को पुनः प्रतिष्ठापित किया और विवाह द्वारा कुलतन्तु-संवर्द्धन-रूपी धर्म की और यायावर-संप्रदाय की प्रवृत्ति कराई। बौधायन धर्मसूत्र[2] में यायावर ऋषियों का उल्लेख है कि वे रास्ते में ही चलते-चलते ठहर जाते थे और वहीं पर अग्निहोत्र आदि क्रियाएं पूरी करते थे। इस वर्णन से ऐसा लगता है कि यायावर मुनि अपने छकड़ों पर ही अपना सामान लाद कर सदा फिरन्दरों की भाँति एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाऊ-चूल्हा जीवन व्यतीत करते थे। ये ही पीछे वैखानस-धर्म के अनुयायी हुए। वैखानस शब्द में ही यह संकेत है कि इनके छकड़ों में पहिया और धूरा एक में ठोस मिला रहता था और धूरे पर पहिया घूमने की बजाय पहिया धूरे को साथ लेकर घूमता था। इसी कारण इनके पहियों में ‘ख’ या ‘छिद्र’ नहीं होता था, जैसा दूसरे पहियों में पाया जाता है, अर्थात इनके पहियों में अरे ठुके हुए नहीं होते थे, अपितु पहिये ठोस लकड़ी के बनाये जाते थे। फिर यायावर लोग ‘शालीन’ कहलाने लगे, क्योंकि उन्होंने ‘शाला’ या घर बनाकर रहना आरम्भ कर दिया।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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