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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 8-9
उत्तर कुरु प्रदेश की ठीक स्थिति कहाँ थी, इसे समझना आवश्यक है। चतुर्द्वीपी भूगोल के अनुसार मध्यवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर की समस्त भूमि उत्तर कुरु कहलाती है अर्थात पामीर पठार से उत्तरी ध्रुव तक का सारा भू भाग किसी समय उत्तर कुरु के नाम से प्रसिद्ध था। जब सप्त द्वीपी भूगोल से इसे तीन भागों में बांट दिया गया, तो सबसे उत्तर वाला प्रदेश उत्तर कुरु कहलाता रहा। इससे यह सूचित होता है कि पामीर के उत्तर में जो चीनी तुर्किस्तान का बहुत लम्बा-चौड़ा भू भाग है, वह सब और उसके उत्तर में ‘साइबीरिया’ की जो विस्तृत, गहन वन-भूमियां हैं, वे सब ‘उत्तरकुरु’ इस भौगोलिक नाम से प्रसिद्ध थी। इस प्रदेश में शक जाति का आरम्भिक निवास-स्थान था, जो कालान्तर में पामीर पठार की ओर सरकती हुई क्षीरोद समुद्र (मध्यकालीन शीरवान, वर्तमान कास्पियन सागर) तक फैल गई। पीछे पामीर से क्षीरोद तक का प्रदेश शाक द्वीप के नाम से प्रसिद्ध हो गया। संयोग से उत्तरकुरु और शाक द्वीप इन दो का ही विस्तृत वर्णन भीष्मपर्व के भूगोल में बचा है। उत्तरकुरु के सम्बन्ध में एक बहुत पुरानी अनुश्रुति चली आती थी, जो लगभग काल्पनिक है, अर्थात इतिहास का अंश इसमें प्रायः नहीं है, जबकि शाक द्वीप का वर्णन इतिहास के दृढ़ आधार पर टिका है। ऐसी मान्यता थी कि उत्तरकुरु में कुछ ऐसे कल्प वृक्ष होते हैं, जो वहाँ के निवासियों के भोजन, वस्त्र आदि सब आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।[1] उनसे छहों रस वाले भोज्य पदार्थ, पहनने के दुकूल आदि वस्त्र और नाना प्रकार के आभूषण उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से स्त्री और पुरुषों के मिथुन या युगल जन्म लेते हैं, जो सदा स्वस्थ रहकर सहस्रों वर्ष जीवित रहते हैं। उत्तरकुरु एक ऐसा आदर्श लोक था, जहाँ अनायास सब प्रकार की सुख समृद्धि प्राप्त हो जाती थी। यह कल्पना लोकप्रिय हुई और अन्यत्र भी इसका वर्णन मिलता है। वाल्मीकि रामायण में जब सुग्रीव ने अपने वानर दल को उत्तर दिशा में भेजा तो उसने वहाँ के उत्तरकुरु देश का इसी प्रकार का रोचनात्मक वर्णन किया।[2] वायु पुराण में भी इसी प्रकार का वर्णन है।[3] पाली साहित्य में भी ऐसी प्राचीन अनुश्रुति चली आती थी।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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