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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 37
तब विदुर ने कुछ सामान्य शिष्टाचारों की व्याख्या की, जो मानव मात्र द्वारा पालन करने योग्य हैं, “मनुष्य को उचित है कि अभिवादन-रूपी शिष्टाचार का मनुष्य मात्र के साथ ठीक-ठीक पालन करे। जब कोई वृद्ध व्यक्ति किसी युवक के पास मिलने आता है तो युवक के प्राणों का सन्तुलन क्षुब्ध हो उठता है। अपने केन्द्र को फिर स्थिर-शान्त बनाने के लिए उसे चाहिए कि उठकर वृद्ध व्यक्ति का स्वागत करे और अभिवादन करे। मनुष्य को यह भी उचित है कि शिष्टाचार के विषय में वह स्वयं पहल करे। अपने को कभी दूसरों से पिछड़ने न दे। अभ्यागत को पहले आसन देना चाहिए। फिर पाद-प्रक्षालन के लिए जल देना चाहिए। पुनः कुशल-प्रश्न पूछकर जो अपने पास सुलभ हो, उसे सरल हृदय से निवेदन करके अन्नादि से सत्कार करना चाहिए। जिसके यहाँ विद्वान को पाद्य, अर्ध्य, मधुपार्क न मिलें, उस व्यक्ति के जीवन का आर्य पद्धति में जीवित रहना नहीं माना जाता।” इसी प्रसंग में सच्चे भिक्षु और पुण्यात्मा तपस्वी का लक्षण बताया गया है। युधिष्ठिर के यहाँ ऐसे लोगों का आना सौभाग्य माना जाता था। विद्यावृद्ध, शीलवृद्ध, वयोवृद्ध, बुद्धिवृद्ध, धनवृद्ध और अभिजनवृद्ध, इन छः प्रकार के लोगों को उचित सम्मान मिलना ही चाहिए। कोई मूढ़ ही इनका अपमान करेगा। इसी प्रकरण में यह बताया गया है कि राजा को कैसे एकान्त स्थान में किनके साथ मंत्र-विचार करना उचित है। धर्म, काम और अर्थ संबंधी कार्यों में जो करना हो, उसे कहकर नहीं, करके ही जताना चाहिए। जो सुहृत न हो, या सुहृत होने पर भी प्रज्ञावान (पंडित) न हो, या पंडित होने पर भी जो आत्म-सयमी न हो, ऐसे व्यक्ति को अपना मंत्र बताने से कुछ लाभ नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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